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________________ परिच्छेद पाँच व्यापार, व्यवसाय और वाणिज्य आधुनिक विज्ञान और तकनीक को छोड़ दे तो आगम-युग में जो व्यापार और व्यवसाय, शिल्प और कला थे, उसकी एक लम्बी सूची है, जिस पर हमने ऊपर विमर्श किया। कितने ही व्यवसाय, शिल्प और कलाएँ तो ऐसी है कि आज वे अनुपलब्ध हैं। यह समय का प्रभाव है। प्रगति के साथ जब वस्तु विनिमय में व्यावहारिक कठिनाइयाँ पैदा होने लगी तो मुद्रा विनिमय और मुद्रा के माध्यम से क्रय-विक्रय की व्यापारिक गतिविधियाँ होने लगी। यह निर्भरता स्थानीय, क्षेत्रीय और देशीय से बढ़कर जब अन्तर्देशीय हो जाती है तो आयात-निर्यात और वैश्विक व्यापार जन्म लेता है। इस प्रकार दो प्रकार की व्यापारिक गतिविधियाँ होती है - देशी व्यापार और विदेशी व्यापार। विदेशी व्यापार में आयात-निर्यात मुख्य है। व्यापार का तीसरा तरीका है - मध्यपत्तन व्यापार (Intrepot Trade) व्यापार और व्यापारी सामान्यतः क्रय-विक्रय को व्यापार (Trade) और इन गतिविधियों में संलग्न व्यक्ति को व्यापारी (Trader) कहा जाता है। उत्तराध्ययसूत्र में खरीदने वाले को कइयो (क्रेता) और बेचने वाले को वणिओ (वणिक) कहा गया है।' व्यापारी दो प्रकार के बताये गये हैं - 1. स्थानीय व्यापारी 2: सार्थवाह / स्थानीय व्यापारी के तीन प्रकार बताये गये हैं - वणिक, गाथापति और श्रेष्ठी। स्थानीय व्यापार ग्राम-नगर के बाजारों में नित्य उपभोग की तथा अन्य सभी वस्तुएँ उपलब्ध रहती थी। राजमार्गों और चौराहों पर भी खाने-पीने की चीजे मिल जाया करती थी। दशवैकालिक में बताया गया है कि वहाँ सत्तू, चूर्ण, तिलपट्टी, जलेबी, लड्डू, मालपुए आदि उचित मूल्य पर बिक्री के लिए उपलब्ध रहते थे। अलगअलग वस्तुओं के लिए अलग-अलग बाजार भी होते थे तथा अनेक दुकानें वस्तुविशेष के लिए ही होती थीं। 'चक्रिकशाला' में तेल, गौलिकशाला में गुड़, दोसियशाला में दूष्य (वस्त्र), सौतियशाला में सूत तथा बोधियशाला में तन्दूल बेचे जाते थे। (144)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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