________________ - निकट में वन-उपवन हो, - खेलने के लिए मैदान हो तथा - घूमने के लिए स्थान हो। नदी, वन, पहाड़, देवस्थान, उद्यान, वृक्ष, श्मशान आदि गाँवों के सीमाचिह्न माने जाते थे। व्यवसाय और समुदाय के अनुसार भी गाँव बस जाते और उनका नामकरण हो जाता था। जैसे वैशाली तीन भागों में विभक्त थी - बंभणगाम, खत्तियकुण्ड-गाम और वाणियगाम। इनमें क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वणिक लोगों का बाहुल्य था।" गाँवों की अपनी व्यवस्था होती थी। वे आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी होते थे। सभी जातियों और वर्षों के व्यक्ति सौहार्द्रपूर्वक अपना जीवन जीते थे। यहाँ तक पशु-पक्षियों के बीच भी आत्मीय रिश्ता होता था। पर्यावरण और पारिस्थितिकी का ध्यान रखा जाता था। व्यस्त बाजार वाले व्यापारिक गाँव "निगम" तथा औद्योगिक गाँवों के निकट बनने वाले गाँव द्वारगाम कहलाते थे। गाँवों के इस प्रकार के वर्गीकरण के उल्लेख से उस समय की विकसित अर्थव्यवस्था, ग्राम और नगर व्यवस्था का पता चलता है। कृषि के साथ-साथ गृह और कुटीर उद्योग भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार थे। खेतों की रक्षा . खेतों की बाड़ बनाना, माप करना, रक्षा करना आदि कृषि के अंग थे। खेतों को मापने वाले रज्जुक कहलाते थे। उनका कार्यालय रज्जुक सभा कहलाता था। स्जुक संभवतः आज के पटवारी की भाँति राज्य-कर्मचारी होते थे। जो भूमि मापन, प्रबन्धन और नियमन किया करते थे। भगवान महावीर अपने अन्तिम वर्षाकाल में पावा की रजुक सभा में ठहरे थे। खेतों की रक्षा के लिए कृषक-बालिकाएँ "टिट्टि-टिट्टि ' चिल्लाकर पशु• पक्षियों को एवं लाठी मारकर साण्डों को भगाया करती थी। सूअर आदि जंगली जानवरों की रक्षार्थ सींग आदि बजाया जाता था। भगवान महावीर को ऋजुबालिका नदी के किनारे श्यामक गृहपति के कठुकरण खेत में कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। खेतों की रक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती थी। क्षेत्रपाल नियुक्त किये जाते थे। लोगों की हैसियत के अनुसार भिन्न-भिन्न आकार के खेत होते थे। साधारण किसानों के खेत छोटे होते थे। मगध देश के एक कुटुम्ब के खेत इतने बड़े थे कि उनमें 500 हलवाहें काम करते थे।" (93)