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________________ - STRESTERTI जीव विचार प्रकरण 8888 प्रस्तुत प्रकरण पर खरतरगच्छीय वाचक श्री मेघनंदनजी म. के शिष्य पाठक रत्नाकर जी म. ने पहली टीका रची। दूसरी टीका महोपाध्याय श्री समयसुंदरजी म.सा. ने 1698 में अहमदाबाद में रची और तीसरी टीका बीकानेर में श्री क्षमाकल्याणजी म. ने 1850 में रची। * प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर मेरे हृदय का प्रमुदित होना सहज प्रक्रिया है। इस प्रस्तुक के विवेचन में और विशेष रूप से प्रश्नोत्तरी के माध्यम से मुझे जीव पदार्थ की गहराई में उतरने का एवं श्रुतनिधि के नये-नये आयामों स्पर्श करने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ, वह मेरे मन को प्रसन्नता से भरे, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेखनकाल में अनेक अनछुए एवं अनसुने पहलुओं को समझने एवं जानने का अवसर मिला। प्रज्ञापना सूत्र के इकतीसवें संज्ञी पद में एक नया तथ्य सामने आता है। परमात्मा महावीर से गौतमस्वामी ने प्रश्न किया-. - णेयइरयाणं भंते ! किं सण्णी असण्णी नो सण्णी नो असण्णी? परमात्मा महावीर ने गौतम स्वामी के सम्मुख समाधान प्रस्तुत कियागोयमा ! णेरइया सण्णी वि असण्णी वि, णो सण्णी णो असण्णी। यह संवाद महत्वपूर्ण रहस्य को प्रकट करता है। गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है कि भगवन्! नारकी जीव संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं अथवा नो संज्ञी नो असंज्ञी हैं। गौतम ! नारकी संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं परंतु नो संज्ञी नो असंज्ञी नहीं हैं। यही बात वाणव्यंतर देवों के संदर्भ में भी कही गयी है। आज नारकी जीव और व्यंतर देव को असंज्ञी कहा जाये तो पंडित भी अचरज में पड़ जाते हैं कि ये असंज्ञी कैसे हो सकते हैं परंतु सर्वज्ञ महावीर का यह कथन इस बात को प्रस्तुत करता है कि नारकी और व्यंतर देव असंज्ञी भी होते हैं। आगे समाधान देते हुए परमात्मा ने कहा- जो संज्ञी जीव भवनपति, व्यंतर, नरक में उत्पन्न होते हैं, वे संज्ञी होते हैं और जो असंज्ञी जीव उनमें उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी होते हैं। यह विषय इस ग्रन्थ की प्रश्नोत्तरी में शामिल नहीं किया है। उसमें तो वर्तमान में
SR No.004274
Book TitleJeev Vichar Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar
PublisherManitprabhsagar
Publication Year2006
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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