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________________ महर्षि ने कहा- जैसे ही गिरिराज को दूर से देखो तो दोनों हाथ जोड़कर नमन करना चाहिए | गिरिराज के निकट आने पर सोने और मणिरत्नों से वधाना चाहिए / प्रभु के समान ही गिरिराज की सेवा-भक्ति करनी चाहिए / इसी के साथ उपवास का तप करना चाहिए / ___ महर्षि के वचनानुसार भरत चक्रवर्ती ने बहुमानपूर्वक गिरिराज की उत्कृष्ट भावों से पूजा-भक्ति की / उस समय सौधर्मेन्द्र भी वहाँ आया / __ श्री नाभ गणधरजी की पावन निश्रा में भरत महाराजा तथा इन्द्र महाराजा ने संघ के साथ गिरिराज की भावपूर्वक यात्रा की / रायण वृक्ष के नीचे सौधर्म इन्द्र ने ऋषभदेव प्रभु की चरण पादुका स्थापित की / भरत ने उस चरण पादुका को वन्दन किया / तत्पश्चात् इन्द्र ने कहाहे भरत नरेश्वर! यद्यपि प्रभु के चरणों से पवित्र बनी यह भूमि स्वयं तीर्थ रूप है फिर भी लोगों की भावना की अभिवृद्धि के लिए यहाँ भव्य मन्दिर का निर्माण करना चाहिए / यद्यपि अभी ऋषभदेव प्रभु स्वयं विद्यमान हैं, फिर भी लोगों की विशेष श्रद्धा हेतु प्रभु की प्रतिमा बिराजमान करनी चाहिए / ... इन्द्र की बात को सुनकर तुरन्त ही भरत ने अपने वार्द्धकी रत्न को मन्दिर निर्माण का आदेश दिया / कुछ ही समय में भरत की आज्ञानुसार त्रैलोक्य विभ्रम नाम का प्रासाद बन गया / __ मन्दिर की पूर्व दिशा में सिंहनाद, पश्चिम में मेघनाद, उत्तर में विशाल तथा दक्षिण में भद्रशाल नाम वाले 84 मण्डप बनवाए | उसमें अनेक रत्नत्रयी वेदिकाएँ बनाई / मन्दिर के मध्य में चतुर्मुख वाली रत्नों की ऋषभदेव प्रभु की प्रतिमाएँ रखी / दूसरे मन्दिरों में 24 तीर्थंकरों के वर्ण, देहमान के अनुसार रत्नों की प्रतिमाएं स्थापित की / भरत महाराजा ने चारों दिशाओं में चौरासी मण्डप बनवाए / जिसके रत्नत्रयी तोरण थे / मूलगम्भारे में चारों प्रतिमाओं की स्थापना की, पुण्डरीक गणधरजी की, नमीविनमीजी की काउस्सग्ग के रूप में, नाभिराजा तथा मरुदेवी 73
SR No.004266
Book TitleItihas ki Dharohar evam Karm Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPragunashreeji, Priyadharmashreeji
PublisherPragunashreeji Priyadharmashreeji
Publication Year2014
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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