________________ *न प्रस्तावना जैन धर्म का इतिहास आकाश के समान विशाल, पृथ्वी के समान विस्तृत तथा सागर समान गम्भीर है। लेकिन इनकी जानकारी परमात्मवाणी से होती है। परमात्मवाणी में अनुरक्त और जिनवाणी को हृदय में धारण करने वाली भव्यात्माएँ तत्त्व ज्ञान को प्राप्त करके परित्त संसारी बन जाती हैं। इसी जिनवाणी का आधार लेकर अनन्त आत्माएँ संसार-सागर से तर चुकी है, वर्तमान में संख्याबद्ध जीव तर रहे हैं और भविष्य में भी अनन्त जीव तरेंगे। आत्मा का ज्ञान जिनवाणी के श्रवण से और पठन से होता है। . ज्ञानियों का कथन है कि महापुण्योदय से मनुष्य का भव मिलता है उसमें भी उत्कृष्ट पुण्योदय हो तो आर्य क्षेत्र और जैन धर्म की प्राप्ति होती है। सर्वोत्कृष्ट पुण्य की प्रबलता हो तो वीतराग देवाधिदेव द्वारा प्ररूपित धर्म का श्रवण तथा पंच महाव्रतधारी गुरुओं का समागम मिलता है। गुरुओं के समागम तथा उनके मुख से जिनवाणी का श्रवण करने से जीवन में परिवर्तन आता है। परन्तु मात्र श्रवण करने से प्रत्येक वचन स्मृति-पथ पर नहीं रहता है। कई श्रोता प्रतिदिन प्रवचन श्रवण करते हैं परन्तु प्रवचन हॉल से बाहर निकलते ही सुनी हुई सभी बातें हवा की तरह आकाश में बिखर जाती है। यदि उसी जिनवाणी को संकलित तथा सुनियोजित रूप से गुंथित किया जाए और ग्रन्थ तथा पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाए तो उससे अत्यधिक लोग लाभान्वित हो सकते हैं। प्रस्तुत पुस्तक का लेखन 'स्वान्तः सुखाय, बहुजन हिताय' की भावना से किया है। वर्तमान युग में टी.वी. विडियो, केबल, सीरियल, फिल्मों में दिखाए जाने वाले विभत्स दृश्य और मौज-शोक के साधनों ने मानव के सुसंस्कारों पर कुठाराघात किया है। सद्गुण और संस्कार-ऑक्सीजन पर जी रहे हैं। आज मानव-मानव न रह कर दानवता की नींव पर खड़ा है जो वीरता और अहिंसा, संयम और सत्य का आग्रही था वह परिग्रही और विलासी बन गया है। जो श्रमजीवि तथा बन्धुत्वजीवि था वह आलसी और झगड़ाखोर बन गया है। अर्थ और काम में संलग्न मानव अपने धर्म तथा