________________ 384 विक्रम चरित्र "सुपात्र को दान देने से धर्म की प्राप्ति होती है, सामान्य व्यक्ति को दान देने से दयालुता की प्राप्ति होती है, मित्रजन को दान देने से प्रेम की वृद्धि होती है, शत्रु को दान देने से वैरभाव नष्ट होता है, सेवक को दान देने से वह अपनी ज्यादा सेवा करता है, राजा को दान देने से सम्मान मिलता है और विद्वानों को दान करने से यश प्राप्त होता है। इस प्रकार दान कभी भी कहीं भी निष्फल नहीं होता।"* श्री जिनेश्वर देव वर्ष पर्यन्त प्रतिदिन याचकों को याचना के अनुसार सोना, चांदी आदि पदार्थों का दान करते हैं। इस प्रकार समस्त पृथिवी को ऋण रहित करके पश्चात् दीक्षा लेते हैं और क्रमशः कर्म के नाश होने पर वे मुक्ति को प्राप्त करते हैं। कहा है किः- . ___"यदि लक्ष्मी स्वयं उपार्जित की गई है तो वह अपनी कन्या तुल्य है, यदि पिता द्वारा उपार्जित है तो भगिनी तुल्य है। यदि किसी अन्य से इसका सम्बंध है तो पर स्त्री है / इसलिये लक्ष्मी को त्याग करने की भावना जिन्हों के मनमें हैं वे श्रेष्ट बुद्धिवाले मनुष्य है।* *पात्रे धर्मनिबन्धनं तदितरे प्रोद्यदु दयाख्यापकं, मित्रे प्रीतिविवर्धनं रिपुजने वैरोपहारक्षमम् / भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतौ सन्मानपूजापदं, भट्टादौ च यशस्करं वितरणं न क्वाप्यहो निष्फलम् // 63 // * उत्पादिता स्वयमियं यदि तत्तनूजा, तातेन वा यदि तदा भगिनी खलु श्रीः / यद्यन्यसंगमवती च तदा परस्त्री स्तत्त्यागबद्धमनसः सुधियस्ततोऽमी // 70 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org