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________________ सर्ग तृतीय पृष्ठ 116 से 157 तक प्र. 13 से 15 तक प्रकरण तेरहवा . . . . पृष्ठ 116 से 125 तक ... विक्रम का अवन्ती आना तथा कलावती से लग्न पाठकगण ! आपको विदित ही है कि विक्रमादित्य अपनी इष्टसिद्धि करने के लिये प्रयत्न करते थे और इष्टसिद्धि करके ही रहे / इस कारण उन्होने धन्यवाद देने के लिये अपने कार्य में सहायक मित्र भट्टमात्र और अग्निवैतालको बुलाये और धन्यवाद दिया। गुप्त रूप में भट्टमात्र को अवन्ती की रक्षा के लिये भेजकर और अग्निवैतालको अपनी परिचर्या के लिये रक्खा, जिससे उसका आडम्बर बढा-चढा रहे और श्वसूरपक्षवाले यह समझे कि यह न केवल मनुष्यमात्र हो है लेकिन कोइ दैवी पुरुष है।। . इस तरह दोनो को न देखने से राजा शालिवाहन विक्रमादित्य को पूछता है जब विक्रमादित्य जवाब देते है कि दोनो देव कहीं क्रीडा करने चले गये है, बाद में भोजन के लिये कहते हैं तब जवाब मीलता हैं कि मैं भोजन करता ही नहीं लेकिन फल-फूल खाता हूँ एसा कहकर फलादि का खाना स्वीकारा, राजा इस प्रकार का उच्च जीवन देखकर उच्च कुलीन की कल्पना करता है और सुकोमला की माता भी जमाई का इस प्रकारका वर्तन देखकर मन ही मन प्रसन्न हुई। इस तरह विलासमय जीवन बिताते हुए विक्रमादित्य को छ मास चले गये और सुकोमला गर्भवती होनेसे उस को अपने पिता के वहाँ ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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