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________________ 362 विक्रम चरित्र “वन में, युद्ध में, शत्रु, जल तथा अग्नि के बीच में पर्वत के शिखर पर, सोये हुए को, अत्यन्त पागल बने हुए को अथवा दुःख में पडे हुए व्यक्ति को अपना पूर्व में किया हुआ पुण्य ही रक्षा करता है।" जब विक्रमचरित्र मगर के पेट से जीवित निकल गया और होशमें आया तो विचार ने लगा कि वास्तव में भाग्य बड़ा बलवान् है। क्यों कि भाग्य ने प्रथम दोनों नेत्र ले लिये। पुनः औषध प्रयोग से दोनों नेत्र दे दिये। फिर राजकन्या तथा धन दिया। फिर मुझ को समुद्र में गिरा दिया और पुनः समुद्र से जीवित ही बाहर निकाला। अतः पुनः अपना भाग्य अजमाने के लिये वह निकल पडा / अवन्तीपुरी तक पहुंचना विक्रमचरित्र नगर तथा ग्राम आदि में फिरता हुआ कुछ समय में अवन्ती पुरी के समीप आ पहुँचा / वहाँ पहुँच कर वह मन में विचारने लगा कि अभी मैं ऐसी अवस्था में अपने माता-पिता से कैसे मिलूँ। बिना लक्ष्मी के कोई भी मनुष्य कहीं भी शोभा नहीं पाता / जिस के पास धन है, वही व्यक्ति कुलीन, पंडित, शास्त्रज्ञ, गुणज्ञ, वक्ता तथा माननीय होता है। सब गुण काञ्चन का ही आश्रय ग्रहण करते हैं। छिप कर रहना इसलिये जब तक मेरे कनकपुर से आते हुए सभी जहाज नहीं वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा / सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि // 31 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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