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________________ 332 विक्रम चरित्र _"धन से दान, वाणी से सत्य, आयु से कीर्ति और धर्म और शरीर से. परोपकार कर के असार वस्तुओं से सार ग्रहण करना . चाहिये / यही मनुष्य जन्म का सार है / "x धर्मघोषसूरि से इस प्रकार धर्मोपदेश सुन कर विक्रमचरित्र सतत दान, शील, तप और भावना के चारों प्रकार से धर्माचरण करने लगा। व्यक्ति जब मोक्ष के नजदीक आता है तथा सकल कल्याण प्राप्ति योग्य होता है तब वह जिनेन्द्र के कहे हुए धर्म को भावनापूर्वक अंगीकार करता है। धर्म कार्य में बेहद व्यय विक्रमचरित्र धर्म कार्यों में जो द्रव्य व्यय करता था, वह बहुत ज्यादा था / जब इतना अधिक द्रव्य खजाने से खर्च होने लगा तब कोषाध्यक्ष ने आश्चर्य चकित हो कर महाराज विक्रमादित्य से कहा कि 'हे राजन् ! आप का पुत्र सतत बेहद द्रव्य व्यय कर रहा है / अतः में क्या करना चाहिये। तब महाराज विक्रमादित्य ने कोषाध्यक्ष को कहा कि 'इस को द्रव्य देने में जरा भी संकोच मत करना / मैं उसे किसी समय अवसर देखकर हित शिक्षा दूंगा। जो काम शान्ति पूर्वक होजाय उसके लिये कठोरता का व्यवहार करना उचित नहीं / ' राजा की हित-शिक्षा इसके बाद एक दिन राजा विक्रमादित्य भाव और द्रव्य से x दानं वित्ताद् ऋतं वाचः कीर्तिधर्मी तथाऽऽयुषः / परोपकरणं कायादसारात् सारमुद्धरेत् // 69 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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