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________________ 315: मुनि निरंजनविजयसंयोजित ही अपने दोषों को देखते हैं। विरल व्यक्ति ही परोपकार करनेवाले होते हैं। इसीप्रकार दूसरों के दुःख से दुःखी भी व्यक्ति विरल संसार में ही होते हैं / आनन्दकुमार ने स्वयं ही राजकन्या को दिन में तारा देखने वाली बनायी, परोपकार करने के उद्देश्य से उसे दूसरे को दिलावाई / फिर आनन्दकुमार अपने दिये हुए वचनों का पालन करके राजा महाबल के समीप उपस्थित हुआ। राजा महाबल ने कहा कि हे कुलोत्तम ! तुम मुझको इस समय रैवताचल पर्वत पर क्यों नहीं अनशन करने देते हो। तुमने प्रथम धर्मध्वज का मनोरथ पूर्ण किया / अनन्तर श्रेष्ठ कन्या देकर सिंह नामक किसान का भी मनोरथ पूर्ण किया। परन्तु मेरे मनोरथ को अभीतक पूर्ण नहीं किया है और मुझे अनशन भी करने नहीं देते हो / अब मुझे क्या करना चाहिये / महाबल की अपनी पुत्री से भेट राजा महाबल के बार बार कहने पर आनन्दकुमार चुपचाप एकान्त में घर के अन्दर चला गया और औषध प्रयोग द्वारा अपना पूर्व शरीर धारण करके स्त्रीके रूपमें पुनः शुभमती बनकर राजा महाबल के समक्ष हाजिर हुआ, तब अपनी कन्या को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा महाबल ने पूछा कि 'तुम उस समय किसके द्वारा हरण की गई थी, यह मुझे सविस्तर बताओ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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