SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 301 मुनि निरंजनविजयसंयोजित कोमल पल्लवों का आरोप करता है और अत्यन्त आनन्दित होता है / "* उस किसान को ठीक इसी प्रकार उन्मत्त समझ कर वह ब्राह्मण अपने घर चला गया। वह किसान भी क्षेत्र में भ्रमण करके अपनी पूर्व स्त्री के समीप पहुँचा / वहाँ जाकर अपनी स्त्री से कहा कि 'हे प्रिये ! तुम अब अपने घर चलो।' उसकी बात सुन कर वह स्त्री कहने लगी—'तुम जिस नवीन स्त्री को लाये हो, वही तुम्हारे घर का सब काम सुन्दरता से करेगी। मुझ से अब तुम को क्या काम ?' इस प्रकार अपनी स्त्री से तिरस्कार पाने पर वह किसान अत्यन्त दुःखी हो गया। क्यों कि 'धन, स्त्री, धान्य आदि वस्तुओं के अपहरण होने पर निश्चय ही मनुष्य अपने हृदय में तत्काल अत्यन्त दुःखी होजाता है।' इस के बाद उस बूढे भारण्ड का चौथा पुत्र बोला—'हे तात! मैं सुन्दर वन में भ्रमण करता हुआ एक वृक्ष पर बैठा। दो पथिक कहीं से आकर उस वृक्ष के नीचे बैठे थे। उन में से एक कहने लगा कि 'क्या तुमने पृथ्वी में कहीं कोई आश्चर्य देखा या सुना है ? इस समय तुम्हारा मुख श्याम उदास हुए क्यों है ? अथवा कोई तुम्हारे धन या स्त्री का अपहरण कर गया है ? यह सब मुझे कहो।' .. .* दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितम् / रागान्धस्तु यदस्ति तत् परिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति॥ कुन्देन्दीवरपूर्णचन्द्रकलशश्रीमल्लतापल्लवानारोप्याशुचिराशिः प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते // 40 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy