________________ 270 विक्रम चरित हुए / वहाँ अपने गुरु श्रीवृद्धवादि सूरीश्वरजी को नमस्कार करके श्रीसिद्धसेनसूरीजी ने विनय से अञ्जलिबद्ध होकर पूछा कि-'हे गुरु ! प्राकृत में बने हुअ जो वन्दनादिक सूत्र हैं, वे विद्वानों के सामने शोभा नहीं देते; अतः यदि आपकी आज्ञा हो तो म उन सूत्रों को संस्कृत में बना दूं।' गुरु श्रीवृद्धवादिसूरीश्वरजी ने कहा कि "हे महाभाग ! गौतमादि गणधर भगवंतादि जो चौदपर्व आदि सब शास्त्रों के पारंगत थे, क्या वे संस्कृत में वन्दनादिक सूत्र बनाना नहीं जानते थे ? उन्होंने सबकी भलाई के लिए ये सूत्र प्राकृत में बनाये हैं। इसलिये तुमने इस प्रकार का वचनबोलकर उनकी आशातना करके महान पाप-अशुभ कर्म उपार्जन किया है। उस पाप से तुम निश्चय ही दुर्गति में गिरोगे। तुम ने इस समय सिद्धान्त की आशातना की है। इसलिये तुम को संसार में बहुत भ्रमण करना पड़ेगा।" पूज्य गुरुदेव की बात सुन कर श्रीसिद्धसेनसूरीजी ने कहा कि मैंने मूर्खता वश व्यर्थ ही अनेक प्रकार के दुःख को देने वाला ऐसा वाक्य कहा इस पाप के कारण मुझको नरकं में गिरना होगा / इसलिये आप कृपा करके मुझे इसका उचित प्रायश्चित्त बता दीजिये। गुरु द्वारा प्रायश्चित्त श्री वृद्धवादिजी गुरु ने कहा कि 'बालक स्त्री, मूर्ख, सब के उपकार के लिये ही श्रीगौतमादि गणधरों ने प्राकृत में रचना की है, इसलिये तुम्हारे जैसे व्यक्ति को इसका बहुत बड़ा प्रायश्चित्त करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org