________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 227 भाग-पीठ नहीं प्राप्त कर सकता है अर्थात् आप कभी किसी से पराजित नहीं हुए / पराजित राजा की ही पीठ दुश्मन देखते हैं। तथा पर की आप का वक्षस्थल छाती का भाग नहीं प्राप्त कर सकती है, अर्थात् आपने कभी भी पर स्त्री से संपर्क नहीं किया। अतः आप सभी वस्तु ओं के दाता कहे जाते हैं यह कैसे होसकता है ?+ इस अपूर्व श्लोक को सुन कर राजाने पुनः संतुष्ट होकर दक्षिण दिशा का राज्य कवि को समर्पण करने का भाव दिखाते हुए अपना मुँह पश्चिम की तरफ फिरा दिया पुनः सूरीश्वरजी ने राजा के सामने आकर निम्न श्लोक पढे: हे राजन् ! आप की कीर्ति चारों समुद्र में मजन स्नान करने से ठंडी होगई थी इसलिये अभी वह कीर्ति धूप की इच्छा से सूर्यमंडल में गई है / अर्थात् चारों दिशाओं में तो आपकी कीर्ति फैली हुई ही थी, परन्तु अब वह स्वर्ग तक पहुँच गई। पुनः राजा के उत्तर दिशा की ओर घूम जाने से सूरिजीने उनके सन्मुख जाकर चौथा श्लोक पढाः-x हे राजन् ! संग्राम में आप की गर्जना से शत्रु का हृदय रूपी घट फूटा जाता है पानी उसकी पत्नी की आखों से गिरने लगा, यह परम आश्चर्य है / अर्थात् चारों लड़ाई में जब आप से आप का + सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे बुधैः। नाऽरयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः // 142 // * त्वत्कीर्तिर्जात जाड्येव चतुराम्भोधिमजनात् / आतपाय महीनाथ ! गता मार्तण्डमण्डलम् // 143 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org