SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 260 विक्रम चरित्र mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm गये और वहाँ श्राद्ध श्रेष्ठी के घर में घुस कर चुपचाप उन्होंने बहुत से भूषण आदि की चोरी की / और चलते हुए उसी वृक्षके नीचे आ पहुँचे जिस पर वह वृद्धा बैठ हुई थी, उन्होंने वहां बैठकर अग्नि जलाई और आपस में धन का बटवारा-विभाग कीया / जब चोरों ने अच्छे अच्छे रेशमी वस्त्र तथा आभूषणों को बाँटना प्रारंभ किया, तब प्रत्युत्पन्न मति वृद्धा अत्यन्त हर्षित होकर " खाऊँ, खाऊँ " चिल्लाती हुई वृक्ष से नीचे उतरी / उसका स्वरूप देख कर यह कोई पिशाचिनी अथवा राक्षसी है, ऐसा समझ कर वे चोर अत्यन्त भयभीत होकर सब वस्तुयें वहीं छोड़ कर दशों दिशाओं में भाग गये / तब वह वृद्धा अत्यन्त प्रसन्न हृदय से सब वस्त्र तथा आभूषण धारण करके सुबह अपने घर की ओर गई। . : . अपनी माता को आती हुई देख कर वीर अपनी स्त्री के साथ अत्यन्त आश्चर्य चकित होता हुआ आकर माता से मिला और पूछा कि 'तुमने इस प्रकार की इतनी सम्पत्ति किस प्रकार प्राप्त की ?' . उस वृद्धा ने उत्तर दिया कि मैं अपने आत्मबल से स्वर्ग में गई तथा मेरा साहस देख कर इन्द्रदेव मेरे पर अतीव प्रसन्न हुए और मुझको ये सब सम्पत्ति देकर मेरा सत्कार किया तथा शीघ्र ही मुझे पृथ्वी पर पुनः भेज दि। सास की बात सुन कर पुत्रवधू ने पूछा कि 'यदि युवती काष्ठभक्षण करे तो इन्द्र किस प्रकार का सम्मान करेगा? . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy