________________ मुनि निरंजनधिजयसंयोजित के इससे ऐसी काष्ठ भक्षण आदि की बात कही है, अन्यथा इस समय मेरे आगे मेरा पुत्र इस प्रकार न बोलता / यह वधू सतत किसी प्रकार छल से मुझको मारना चाहती है / यह किसी भी युक्ति से मेरा प्राण ले. लेगी। अतः यही अच्छा है कि अब मैं काष्ठ भक्षण (चित्ता में प्रवेश) कर मर जाऊँ यह सब सोच कर उस वृद्धा ने कहाः "हे पुत्र ! इस समय मुझको काष्ठ भक्षण करा दो / तब पुत्र और वधू दोनों ने मिलकर नगर से दूर नदी के तट पर काष्ठ भक्षण के लिये रात्रि में काष्ठ लाकर चिता बनाई / वह वृद्धा सासू भी काष्ठ भक्षण करने के लिये उपयुक्त सब क्रिया समाप्त कर के रात्रि में उस नदी तट पर उपस्थित हुई। इस वृद्धा ने चिता की प्रदक्षिणा करके उस में प्रवेश किया वीर के हाथ में रही हुई अग्नि बुझ जाने से वीर अपनी स्त्री से कह कर अग्नि लाने के लिये पुनः गाँव में चला गया / वीरमती से .ऐसा कह कर जब वह वीर चला गया तो वीरमती भय के कारण कुछ दूर चली गई / तब वृद्धा अपने मन में सोचने लगी कि व्यर्थ ही कौन ऐसा होगा जो अपने शरीर को इस प्रकार नष्ट करेगा एसा विचार के वह वृद्धा धीरे से चिता में से निकल कर नीचे उतर आई तथा चिता के पास में ही एक वृक्ष था उस पर चढ़ गई। जब वीर अग्नि लेकर आया तो उसने शीघ्र ही चिता प्रज्वलित की और वहाँ से पति-पत्नी दोनों अपने घर चले आये और निश्चिन्त 'सो रहे / तत्पश्चात् उसी रात्रि में कुछ चोर श्रीपुर नाम नगर में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org