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________________ 199 मुनि निरंजनविजयसंयोजित राजा ने निर्दय होकर इस बेड़ी में मुझ को डाल दिया है। तुम देखते हो कि मैं अत्यन्त दीनता से युक्त कितने कष्ट से इसमें स्थित हूँ।" ____ उसकी बात सुनकर अमात्य-भट्टमात्र बोला:-" मैंने राजा के . आगे प्रतिज्ञा की है कि मैं चोर को अवश्य पकडूंगा। परन्तु उस को अभीतक कहीं नहीं पाया। न ऐसा भी सुना गया कि वह अमुक स्थान पर रहता है। इसलिये इस समय मेरे मन में अत्यन्त चिन्ता तथा दुःख है; क्यों कि राज लोग किसी भी मनुष्य के हित-चिन्तक नहीं होते / इसलिये में अत्यन्त व्यग्र हूँ।" भट्टमात्र की ये बातें सुन कर चोर बोला कि यदि मुझ को कई गाँव पुरस्कार में दिलाओ तो मैं उस चोर के पकड़ने का उपाय बताऊँ / भट्टमात्र ने कहा कि 'यदि तुम चोर को दिखलाओ तो तुमको राजासे कई गाव पुरस्कार में दिला दूंगा।' वह बेड़ी में स्थित पुरुष बोला-" मैं कुंभकार का पुत्र हूँ। मेरा नाम भीम है / मैं दैव योग से उस चोर को मिला था। वह चोर मुझ से कहने लगा कि यदि तुम मेरे साथ नगर में आओगे तो तुम को मैं चोरी करके प्रचुर धन दूंगा। इस के बाद लोभ से मैंने उस चोर के साथ इस नगर में बहुत भ्रमण किया। परन्तु उस चोर ने मुझको कुछ भी नहीं दिया। कहा भी है कि 'क्रोध प्रेम का नाश करता है, अहंकार विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सर्व का विनाश करने वाला होता है। इसलिये उस चोर की संगति से इस समय राजाने मुझको चोर समझ कर इस हेड-बेड़ी में रख दिया है। मैं उसकी संगति से अत्यन्त दीन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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