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________________ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मुनि निरंजनविजयसंयोजित 197 मत करो। तुम क्यों डरती हो ? सब शास्त्रो में वेश्याओं छल-कपट आदि में पारंगत सुनी जाती हैं / वेश्या एक तरक रोती है और दूसरी तरफ मुख से हँसती भी रहती है / वह जैसा करना चाहती है, वैसा ही अपना स्वरूप भी बना लिया करती है / खदिर के बीटक खाने से लाल हुए होठ और दाँत की लाली कहीं नष्ट न हो जाय , इस भय से वेश्या पिता के मरने पर भी हा तात ! हा तात ! कह कर रोती है, 'हा पिता' कह कर वह नहीं रोती; क्योंकि 'प' वर्ग का उच्चारण होठ से होता है, इसलिये * पिता शब्द कहने में उसे अपने होठ की लालिमा नष्ट होने की आशंका रहती है। इसलिये तुम जरा भी न डरो। शास्त्र में सुना गया है कि राजा लोग मुख से ही दुष्ट होते हैं। मैं किसी के भी समीप रह कर चुपचाप चोरी करूँगा; उसे राजा बहुतसा धन देकर उसका सत्कार करेगा। __तब वेश्या प्रसन्न होकर बोली कि 'तुम धन्य हो तथा अत्यन्त निर्भय हो; क्यों कि इस प्रकार के संकट उपस्थित होने पर भी तुम्हें कुछ भी भय नहीं होता। जो धैर्यवान् है, वह कितने भी कष्ट में रहेगा परन्तु उसका साहस नष्ट न होगा / जैसे अग्नि को कोई अधोमुख कर देता है तो भी उसकी शिखा तो सदा ऊर्ध्व मुखी ही रहती है।' - वेश्या की यह बात सुनकर वह चोर बोला कि-' मैं नगर में जाऊँगा / जब रात में आकर मैं दरवाजा खटखटाऊँ तब तुम शीघ्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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