________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 179 ये सब बातें वेश्या सोच ही रही थी कि, इस के बीच चोर बोला कि-'वस्त्राभूषणों से भरी यह पेटी इस समय तुम अपने प्राण के समान ही यत्न पूर्वक सुरक्षित रखना। दूसर बारी मैं नगर से चोरी कर के जो कुछ भी लाऊँगा वह सब तुम ले लेना।' यह बात सुनकर वेश्या अत्यन्त प्रसन्न हुई। क्यों कि जितना लाभ होता है, उतना ही अधिक लोभ होता है, लाभ होने से लोभ बढता ही जाता है। दो मासे सुवर्ण होने पर जो सन्तोष हो सकता है, वह कोटि सुवर्ण होने पर भी अपूर्ण ही रहता है। लाभ कितना भी अधिक हो किन्तु उससे लोभ घटता नहीं, एक मात्रा से जो अधिक है, वह मात्रा घटा देने से पूर्ण नही हो सकता / मनुष्यों के लिये लोभ ही सर्वनाश करने वाला राक्षस है। लोभ ही प्राण लेने वाला विष है। लोभ ही मत्त करने वाली पुरानी मदिरा है। सब दोषों का स्थान एक मात्र निन्दनीय लोभ.ही है। मनुष्यों का शरीर तृष्णा को कभी नहीं छोड सकता। पाप बुद्धि मनुष्य कदापि सुन्दरता नहीं प्राप्त कर सकता / वृद्धावस्था ज्ञान को नहीं बढाती। इसलिये मनुष्यों का शरीर निन्दनीय हो जाता है। फिर भी लोग तृष्णा नहीं छोड़ते। इसलिये वेश्या ने प्रचुर धन प्राप्त होने की आशा से प्रसन्न होकर मदिरा आदि देकर उसे अत्यन्त प्रसन्न किया / ... इस के बाद घर के भीतर बैठा हुआ वह चोर धर्म ध्यान में लीन हो गया। इधर प्रातः काल राजा विक्रमादित्य सोकर उठा और वस्त्राभूषणों को देखा तब जिस पेटी में वस्त्राभूषण रखे हुए थे, उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org