SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 173. anam मुनि निरंजनविजयसंयोजित हैं। चोर यदि अपना चोरी का काम छोड़ दे, तो वह रौहिणेय नामक-चोर की तरह स्वर्ग को प्राप्त करता है / इसलिये मैं तुम को अपने यहाँ स्थान नहीं दे सकती।' देवकुमार उसके घर को छोड़ कर शीघ्र ही दूसरी वेश्या के यहाँ पहुँचा तथा उस से वहाँ रहने के लिये बात चीत की / उस वेश्याने कहा कि- पुरुष और स्त्री की विषम गोष्टी कुछ भी शोभा लायक नहीं होती / क्योंकि अनवसर का काम, विषम गोष्टी, तथा कुमित्र की सेवा ये सब कदापि नहीं करना चाहिये। इस प्रकार वहाँ भी स्थान न मिलने पर देवकुमार क्रमशः अन्य वेश्याओं के घर घूमने लगा। परन्तु एक क्षण के लिये भी कहीं स्थान नहीं मिला। इस प्रकार भ्रमण करता हुआ नगर के बीच में 'काली' नाम की वेश्या के घर पहुंचा। उसके प्रश्न पर उसको भी देवकुमार ने पूर्ववत् उत्तर दिया। देवकुमार के बातचीत करने पर वेश्या अपने मन में विचार करने लगी कि मेरे घर में कोई भी श्रीमान् सेठ नहीं आता है। इसलिये इस प्रकार के मनुष्य को अपने घर रखने में कोई हर्ज नहीं हैं। ऐसा सोच कर उसने देवकुमार रूपी चोर को अपने घर में रखा / जब दो दिन बीत गये और वह कुछ भी द्रव्य नहीं लाया, तब वेश्याने . देवकुमार से कहां कि-'बिना द्रव्योपार्जन के यहाँ कोई नहीं रह सकता अतः कहीं से द्रव्य लाओ अन्यथा अपना रास्ता सँभालो / Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy