________________ 170 / विक्रम चरित्र . तुम्हारा स्मरण करता हुआ अपने कार्य को सिद्ध कर शीघ्र ही यहाँ आ जाऊँगा / जैसे भाद्रपद मास में भ्रमर आम के कुसुमों का स्मरण करता है। ठीक वैसे ही मेरा हृदय तुम्हारे चरण कमलों का स्मरण निरन्तर करता रहेगा / कुमुदिनी जैसे चन्द्रमा को देखने के लिये उत्कण्ठित रहती है, कमल समूह जैसे सूर्य को देखने के लिये लालायित रहता है, कोकिला मकरन्द के लिये जिस प्रकार व्याकुल रहती है, भ्रमर समूह जैसे पुष्प समूह के लिये व्यग्र रहता है, वैसे ही मेरी चित्त्वृति भी तुम को देखने के लिये - सदा उत्कण्ठित हे और रहेगी।" माता से अवन्ती गमन की आज्ञा लेना तथा रवानगी। इस प्रकार अपनी माता को आश्वासन दे कर उसकी आज्ञा पा कर माता को प्रणाम कर के देवकुमार अपने पिता से मिलने के लिये खाना हुआ। अपनी माता के विरह को सहन करने में असमर्थ देवकुमार ने अपने नेत्रों से अश्रु बहाते हुए बहुत कष्ट से उस नगर का त्याग क्रिया और वहाँ से अवन्तीपुर के लिये प्रस्थान किया। मनुष्य को माता, जन्मभूमि, रात्रि के अन्तिम भाग में निद्रा, तथा अच्छी बात चीत वाली गोष्टी, आदि पाँच बातें अत्यन्त प्रिय होती हैं। इसलिये इन सब का त्याग करना अत्यन्त कष्टकारक होता है। फिर भी देवकुमार तलवार लेकर अपने पिता से मिलने के लिए वहाँ से निकल पड़ा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org