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________________ www विक्रम चरित्र रूप दीप बहुत पूर्व में हुए अपने पूर्वजों को भी अपने गुणों की उत्कृष्टता से प्रकाशित करता है। सुकोमला पुनः बोली:-" हे पुत्र ! पशुओं को भी अपनी सन्तान पर अत्यन्त स्नेह रहता है। तब मनुष्यों को अपनी सन्तान पर कितना स्नेह होता है, इस में अधिक क्या कहना है ?" सुनो, एक हरिणी अपनी सन्तान के स्नेह से व्याकुल हो कर व्याध से कहती है कि-' हे व्याध! स्तन को छोड़ कर मेरे शरीर का सब मांस लेलो और प्रसन्न हो कर मुंझको छोड़ दो / क्योंकि जिन को चरना नहीं आता, ऐसे मेरे नन्हें नन्हें बालक अभी आंने का मार्ग देखते होंगे। इसी प्रकार एक हस्ती कहता है कि 'मैं दृढ बन्धन में रहता हूँ। अथवा मेरा शरीर शस्त्र प्रहार से क्षत-विक्षत हो गया है तथा अंकुश से मुझ को महावत बराबर मारता है / मेरे कन्धे पर चढ़ कर ताडन करता है या मुझ को अनेक प्रकार के कष्ट देता है तथा मुझको अन्य देशों में जाना पड़ता है। इन सब बातों का मुझको कुछ भी दुःख नहीं है। परन्तु वन में अपने यूथ को स्मरण कर के उन के गुण केवल मेरे हृदय में चिन्ता उत्पन्न करते हैं कि सिंह के डर से डरे हुए छोटे छोटे बच्चे किस के आश्रय में जा कर अपने प्राणों को बचायेंगे।' इस प्रकार कहती हुई सुकोमला फिर से बोली कि'हे निर्मल हृदयवाले मेरे पुत्र ! तुम शीघ्र जाओ और मुझको बराबर अपने हृदय में स्मरण करते रहना / ' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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