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________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 153 मनोरथ सिद्ध होता है। सज्जनता भी उस में तब तक ही रहती है। मन्त्र-तन्त्र का सामर्थ्य या अपना सामर्थ्य भी तभी तक ही काम करता है। पुण्य के नष्ट हो जाने से यह सब रहते हुए भी प्राणी आपत्ति से उद्धार नहीं प्राप्त कर सकता। जिसने पूर्व में पुण्य का उपार्जन किया है, वह कितने ही सघन वन में हो या युद्ध क्षेत्र में हो, शत्रुसे घिरा हुआ हो या जल में डूबा हुआ हो, अग्नि में हों, पर्वत के शिखर पर हो या गुप्त हो अथवा कितने ही कठिन संकट में पड़ गया हो, सब जगह धर्म उसकी रक्षा करता है। वैसे ही भाग्य के अनुकूल . रहने पर प्राणी को व्यवसाय भी फलित होता है / भाग्य यदि प्रतिकूल हो, तो उद्योग कर के भी प्राणी संकट से त्राण नहीं पाता / जैसे: किसी बन में एक मृग विचरण कर रहा था। एक व्याध ने मार्ग में पाश लगा दिया। तथा मृग को खाई में गिराने के लिये खाई के ऊपर घास तथा पत्तों को रख दिया। अकस्मात वह मृग उस पाश में फँस गया। इधर वन में तब तक चारों तरफ से दावाग्नि लग गयी, जिससे अत्यन्त ज्वाला उठने लगी। फिर भी मृग ने अपने सामर्थ्य से पाश को तोड़ दिया और किसी प्रकार खाई में गिरने से बच गया / वह उस अग्नि ज्वाला से भी बच कर वन से दूर निकल गया / तथा कूद कूद कर व्याध के बाणों से भी बच गया परन्तु कोइ एक दौड़ते कूप में गिर गया / इस लिये ऐसा मानना पड़ता है कि भाग्य के अच्छा रहने पर ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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