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________________ 140 विक्रम चरित्र करने में जरा भी नहीं डरता है। तुम्हारी स्त्री कलावती भी इस समय उस की गुफा में ही है। उसका पातिव्रत्य धर्म अभी तक 'खंण्डित नहीं हुआ है। खप्पर चौर ने चण्डिका देवी का वरदान प्राप्त कर के पृथ्वी में अनायास ही बहुत सी सुरंगें बना ली हैं। वह नवीन नवीन रूप धारण करके तुम्हारा सेवक बना रहता है और नगर में बार बार चोरी करके अपने स्थान पर चला जाता है। इसलिये बड़ी कठिनता से तुम उसका नाश कर सकोगे। वह देवता या दानव किसी से भी नहीं पकड़ा जा सकता है। यदि उसकी गुफा में जाकर उससे मिल कर तुम उसको क्षमा करोगे तो तुम अपनी मृत्यु को ही बुलाओगे। इसलिये बाहर रहते हुए ही तुम उसको क्षमा करना, गुफा में नहीं। यदि वह चोर तुम को जान जायगा तो बहुत कष्ट देगा। जिसके हाथ में क्षमा रूपी तलवार है, उसका दुर्जन रुष्ट होकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता / जैसे जहाँ पर तृण-घास नहीं हैं, वहाँ यदि अग्नि गिरेगी तो वह म्वयं ही शान्त हो जायगी। इन्द्रियों को अपने वश में नहीं रखना वही आपत्ति का मार्ग कहा गया है, इन्द्रियों को अपने वश में रखना सम्पत्ति का मार्ग है। जिससे हित साधन हो उसी प्रकार चलना चाहिये। जो हाथ, पैर और जिह्वा पर नियंत्रण-अंकुश रखता है तथा जिसकी इन्द्रियाँ अच्छी तरह गुप्त हैं, दुर्जन लोग रुष्ट होकर भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। विक्रम का संतोष राजा विक्रमादित्य देवी के मुख से यह सब बात सुन कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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