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________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित को प्रप्त करता हैं। परन्तु जो डरते है, उन को कुछ भी नहीं मिलता है। कान जब शस्त्र-प्रहार को सहता है तब सुपर्ण का अलंकार धारण करता है। नेत्र जब शलाका को सहता है तब अञ्जन से शोभा पाता है। इस तरह मैंने तुम लोगों की सहायता से यह कार्य सिद्ध किया है। भट्टमात्रका अवन्ती गमन ___परन्तु अपनी अवन्ती नगरी की रक्षा करने वाला हाल में वहाँ कोइ भी नहीं है। इस समय कोई शत्रु आकर उसको नष्ट-भ्रष्ट करदेगा। इसलिये “हे भट्टमात्र! तुम नगर की रक्षा के लिये शीघ्र यहाँ से जाओ। और हे अग्निवैताल ! तुम अदृश्य होकर यहाँ रहो तथा मुझको भोजन दो, जिससे मेरी स्त्री तथा दूसरे लोग ऐसा जाने कि 'यह कोई देव या विद्याधर है, मनुष्य नहीं है; क्यों कि वह कुछ भी खाता नहीं है। जब मेरी स्त्री सगर्भा होजायेगी तब हम और तुम दोनों अपने नगर को जायेंगे / " ___ राजा के ऐसा कहने पर भट्टमात्र बहुत वेगसे अवन्तीपुरी के प्रतिगया। विक्रमादित्य और अग्निवैताल वहाँ पर ही रहे / अग्निवैताल हमेशा एकान्त में राजाको भोजन देकर सदा अदृश्य होजाता था। एक दिन शाञ्चिाहन राजा ने पूछा कि वे दोनों देव कहाँ गये ?' विक्रमका दिव्य भोजन .. तब विक्रमादित्य रूप देव ने कहा 'वे दोनों कहीं क्रीडा करने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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