SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विक्रम चरित्र से उचित समय में मेरा जन्म होने पर पिता ने जन्मोत्सव करके मेरा नाम 'मनोरमा' रखा / मैं क्रम से चंद्रमा की कला की तरह बढ़ती गई और अल्प समय में ही सर्व कला, विद्या, धर्म आदि शास्त्रों में पारंगत हो ग। __कहा है " इस परिवर्तन शील संसार में बालक को दोनों प्रकार की शिक्षा देनी चाहिये। एक तो ऐसी शिक्षा जिससे वह न्याय पूर्वक आजीविका का उपार्जन कर सके और दूसरे वह शिक्षा भी देना चाहिये जिससे उसे मर कर सुगति मिले अथवा वह पुण्य कर्मका उपार्जन करे जिससे उसका अगला जन्म भी सुधरे।" पूर्ण वय की होने पर मेरे पिताने देवशर्मा नामक शेषपुर निवासी ब्राह्मणसे बड़ी धूमधाम पूर्वक मेरा ल्म किया। मैं सुख से उनके साथ रहती थी। मेरे पति हमेशा रात्रि भोजन करते थे तथा पानी का अति दुर्व्यय करते थे जिससे घरमें भी गंदकी होती थी। अतः एक दिन मैं अपने पतिको समझाने लगी / रात्रि भोजन, अनन्तकाय व कन्दमूल के भक्षण से तथा जीव हिंसा से मनुष्यों को दुर्गति मिलती है। पुराण आदि में भी कहा है कि : “कूप में स्नान करना अधम है, वापी में स्नान करना मध्यम है, तालाब में स्नान वर्जित है और नदी में स्नान भी अच्छा नहीं, हे पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर! कपड़े से छने हुए शुद्ध जल से घर पर स्नान करना ही उत्तम स्नान माना गया है। अतः तू घर पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy