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________________ मुवि निरंजनविजयसंयोजित अतः मैंने उसे उन साधु के दर्शन करने को कहा। यह सुन कर वह अत्यन्त क्रोधित हो गया और कहने लगा 'अरी दुष्टे, तू अपने को बड़ी चतुर समझती है और मुझे उपदेश देती है। तुझे कुछ भी लज्जा नहीं आती है।' ऐसा कहते हुए उस ने मुझे अपने बाण जैसे तीक्ष्ण सींग से बांध दिया / मैं उस मुनि का ध्यान धरती हुई शुभ भाव से मर कर चौथे भव में देवी हुई / वहाँ भी मुझे अपने मन के अनुकुल पति नहीं मिला / जो देव मेरा पति था, वह अपनी पहली पत्नी में आसक्त था / अतः वह मेरा कहा कुछ भी नहीं सुनता था, मानना तो दूर रहा। ईर्ष्या, द्वेष, विवाद, अभिमान, क्रोध, लोभ, और ममत्व तो देव लोक में भी हैं ही / अतः वहाँ भी सच्चा सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? एक दफा मैंने अपने पति से शाश्वत जिनेश्वर भगवान के दर्शन करने कि मेरी इच्छा प्रकट की। उसने कुद्ध हो कर कहा कि 'कभी ऐसी बात मुझे मत कहना / ' मैंने मौन धारण किया और उसे अपने कर्मो का ही दोष मान कर सब कष्टों को सहती रही। मेरी संपूर्ण देव भवकी आयु इसी तरह के कष्टों में बीताई / वहां से मर कर मैं पांचवे भव में (अबसे तीसरे में ) मुकुन्द ब्राह्मण की प्रीतिमती पत्नी के गर्भ में पुत्रीरूप उत्पन्न हुई। विप्रकी पुत्री ममोरमा - ... पद्मपुर के मुकुन्द नामक ब्राह्मण की पत्नी प्रीतिमती के गर्भ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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