________________ ~rmanwwwwwwwwwwwwwwwwwww मुनि निरंजनविजयसंयोजित 79 तब विक्रमा बोली:-" यदि तुम एक लक्ष सुवर्ण-मुद्रा दो तो मैं आ सकती हूँ।" सुकोमला ने कहाः-" मैं एक लक्ष सुवर्ण मुद्रा देने को तैयार हूँ।" तब विक्रमा मन में सोचने लगी कि राजपुत्री धैर्य, उदारता, दक्षता एवं लज्जा आदि गुणों से युक्त है, यदि बहुत प्रपंचादि किया जाय तो पुरुष पर का इसका जो द्वेष भाव है, वह छूट जायगा और सदाचारिणी एवं सती हो जायेगी, राजपुत्री ने उन पांचों का वस्त्रादि से अपूर्व सत्कार किया / वे पांचों वेश्या के घर लौटीं / फिर भोजनादि नित्य कर्म कर आराम किया। बाद में विक्रमा बड़ी प्रसन्नता से भट्टमात्रा आदि से कहने लगी:- अभी अपने वहाँ जाने से वाच्छित कार्य सिद्ध ही समझो।' .. रात्रि होते ही दिव्य वस्त्रादि एवं भूषणादि से सज्जित होकर विक्रमा राजकन्या के महल में आई / उस समय राजपुत्री स्नानागार में स्नान कर रही थी। एक दासी ने जाकर 'खबर दी:-" हे स्वामिनि ! गाने के लिये विक्रमा आ पहुँची Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org