________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित पड़ने लगी। महामात्य भट्टमात्र ने एक दिन महाराज का मुख म्लान देख कर पूछा-' हे राजन् ! आपके मन में क्या चिन्ता है, जिससे आपके मुख पर उदासीनता छाई रहती है।' भट्टमात्र का यह भक्तिपूर्ण वचन सुन कर महाराज ने कहा'हे अमात्य ! देववर्णित 'शालिवाहन' राजा की 'सुरूपा' कन्या के साथ यदि मेरा पाणिग्रहण न हुआ तो मेरे जीवन का अन्त समझो' / पाठक गण ! यह कहना व्यर्थ है कि संसार में आसक्त प्राणियों के लिये काम को जीत लेना बड़ा ही दुष्कर है। यह वही हाल हुआ कि : “सर्व इन्द्रियों में जिह्वा इन्द्रिय, सब कर्मों में मोहनीय कर्म, सब व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत और मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीनों गुप्तियों में से मनोगुप्ति—ये चारों बड़े साहस दुःख से जीते जाते हैं।" * कहा है कि : _. " दिन में उल्लू को कुछ भी नहीं दीखता तथा रात्रि में कौवे को नहीं दिखाई देता, परन्तु कामान्ध व्यक्ति तो अपूर्व ही होती हैं। *अक्खाण सणी कम्माण, मोहणी तह वयाण बम्भवयं / गुत्तीण य मणगुत्ती चउरो दुःखेण जिप्पन्ति // 35 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org