________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित ही पीछे लौटे, त्यों ही महारानी स्नान-गृह से निकलकर बाहर आई और ऋषि के पीछे जाकर कहने लगी कि—'हे भगवन् ! आपने बाह्येन्द्रिय समुदाय को जीत लिया है किन्तु आभ्यन्तर इन्द्रियों को आपने नहीं जीता है / यह बात आपके इस आचरण से ज्ञात होती है।' तव भर्तृहरिने कहा किः " शत्रु या मित्र में, तृण या स्त्री समूह में, सुवर्ण या पत्थर में, मणि या मिट्टी में, मोक्ष या संसार में, समान, बुद्धिवाला मैं कब होऊँगा ? ~ " यह ही मनोमन सोच रहा हूँ। भर्तृहरि का अन्यत्र गमन ___ इस प्रकार कह कर भर्तृहरि राजऋषि वहाँ से लोगों को बोध कराने के लिये अन्य स्थल में चले गये / पाठकगण ! राजर्षि भर्तृहरि फिर दृढतर वैराग्य से तथा लघु बन्धु की वधू के वच्नानुसार आभ्यन्तरेन्द्रिय को बश करने के लिये गाढ जंगलों में घूमने लगे और आत्म-साधना में विशेष तत्पर हुए / इनकी-विद्वत्ता एवं ज्ञान का परिचय देना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है, क्यों कि इनके नीतिशतक, शृंगारशतक और वैराग्यशतक आदि ग्रन्थ आज भी दुनियाँ में सर्व धर्मानुयायिओं को आदरणीय और शिक्षा में पर्याप्त लाभदायक समझे जाते हैं। .. xशत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि / मोक्षे भवे भविष्यामि निर्विशेषमतिः कदा // 215 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org