________________ विक्रम चरित्र महारानी को अपने प्रिय पुत्रकी रोमाञ्चक कथा सुनकर उसकी राज्यप्राप्ति से अत्यन्त उल्लास एवं आनन्द की भावना जाग्रत हुई। भय, शोक, खेद सब क्षण में ही नष्ट हो गये / एवं हर्षकारी भाव से प्रिय पुत्र को देखते हुए उसके मस्तक पर हाथ रख कर आशीष देती हुई बोली कि-' हे महाभाग ! चिरं जीव' . पाठकगण ! इस समय के महा-विस्मय रोमाञ्च एवं उल्लास का आप ही अनुमान कर लीजिये / माता की भक्ति यह कहना पर्याप्त होगा कि महाराजा विक्रमादित्य सदा ही प्रातःकाल में प्रथम मातृचरणों में वन्दना करके ही राज्य कार्य में प्रवृत्त होते थे। जैसा कहा है: " पशु दूध पीने तक ही माता से सम्बन्ध रखते हैं, अधम पुरुष जब तक स्त्री-प्राप्ति न हो तबतक ही माताका सन्मान करते हैं, मध्यम कोटि के पुरुष जब तक माता पिता घर सम्बन्धी कार्य में सहयोग देते हैं, तबतक उनका सन्मान करते हैं, किन्तु श्रेष्ठ पुरुष तो आजीवन अपनी माता को तीर्थ समान समझकर उसका सदा सन्मान करते हैं "* . * आस्तन्यपानाजननी पशूना मादारलम्भावधि चाधमानाम् / आगेहकर्मावधि मध्यमाना माजीवितात्तीर्थमिवोत्तमानाम् // 174 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org