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________________ 5. आकाश द्रव्य - अब आकाशद्रव्य का स्वरूप बताते हैं सव्वेसिं दव्वाणं अवयासं देइ तं तु आयासं। तं पण विहं भणियं लोयालोयं च जिणसमए।' अर्थात जो जीव अजीवादि समस्त पदार्थों को अवकाश देने में समर्थ है उसको माकाश कहते हैं। भगवान् श्री जिनेन्द्र देव ने उसके दो भेद बतलाये हैं। एक लोकाकाश दसरा अलोकाकाश। आकाशद्रव्य वास्तव में एक द्रव्य ही है परन्तु छहों द्रव्यों को अवकाश देने में सहायक होने से छहों द्रव्यों का समूह जितने स्थान में विद्यमान है, उतने स्थान को लोकाकाश कह दिया है' और जितने स्थान में सिर्फ आकाश ही आकाश है वह अलोकाकाश है; ऐसा भेद कर दिया है वास्तव में तो एक ही है। 6. काल द्रव्य - आगे कालद्रव्य का स्वरूप एवं भेद को प्रदर्शित करते हैं वत्तणगुण जुत्ताणं दव्वाणं होई कारणं कालो। सो दुविह भेय भिण्णो परमत्थो होइ ववहारो॥' अर्थात् जो जीवादिक द्रव्य प्रतिसमय परिवर्तन स्वरूप होते हैं उनके उस परिवर्तन में कालद्रव्य कारण है। उस काल के दो भेद हैं - एक परमार्थकाल दूसरा व्यवहारकाल। काल के जो अणु हैं उनको परमार्थ काल कहते हैं। वे कालाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक ठहरे हुए हैं, इसलिये लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही कालाणु हैं। वे कालाणु आपस में मिलते नहीं हैं क्योंकि रत्नों की राशि के समान अलग ही रहते हैं। वर्तमान काल जो मुख्य काल है उससे व्यवहार काल उत्पन्न होता है। कालाणु अणु रूप है, इसलिये उससे उत्पन्न हुआ व्यवहारकाल भी सबसे छोटा समय रूप ही होता है। भूत, वर्तमान और भविष्य के भेद से व्यवहार काल के तीन भेद होते हैं। द्रव्यों की विशेषतायें- परिमाण की अपेक्षा से कथन करने पर ज्ञात होता है कि जीव और पुद्गल द्रव्य अनंतानंत हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं एवं काल .(i) भा. सं. गा. 308 (ii) बृ. द्र. सं. गा. 19-20 सकलद्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो।।3/8 (i) भा. सं. गा. 309 (ii) बृ. द्र. सं. 21-22 56 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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