________________ आचार्य कहते हैं कि ये मुनि सर्वसंगरहित, परम वीतरागी होते हैं। ये यतीश्वर जिनेन्द्रदेव के समान सदाकाल विहार करते रहते हैं, इसलिए ये जिनकल्पी कहलाते हैं। अब स्थविरकल्पी मुनियों के स्वरूप को कहते हैं थविरकप्पो वि कहिओ अणयाराणं जिणेण सो एसो। पंचच्चेलच्चाओ अकिंचणत्तं च पडिलिहणं॥ अर्थात् भगवान् जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के लिए स्थविरकल्पी का स्वरूप कहा हैजो मुनि पांचों प्रकार के वस्त्रों (सूत, रेशम, ऊन, चर्म और वृक्षों की छाल के बने वस्त्र) का सर्वथा त्याग करके आकिंचन व्रत धारण करते हैं और पीछी रखते हैं, ऐसे मुनिराज स्थविरकल्पी कहलाते हैं। यहां विशेष यह जानना चाहिए कि जो पीछी मृदु हो, छोटी हो, धूल-मिट्टी को ग्रहण न करती हो, वही प्रशंसनीय है। - ये मुनिराज साधुओं के 28 मूलगुण पांच महाव्रत, पांच समिति, छह आवश्यक, पंचेन्द्रिय विजय और सात शेष गुण, इनका निरतिचार पालन करते हैं। वे यथासमय उत्तरगुणों का पालन, अनुप्रेक्षाओं का चिंतन, दशधर्मों का पालन, परीषहजय, चारित्रपालन और तपश्चरण आदि को सहज भाव से पालते हैं। जिनदेव के समान आचरण करने से स्थविरकल्प मुनि कहलाते हैं। इस दुःषमा काल में शरीर का हीन संहनन होने से ये मुनिराज किसी गांव, नगर अथवा पुर में रहते हैं। ये संयम का उपकरण पीछी, शुद्धि का उपकरण कमण्डलु और ज्ञान का उपकरण शास्त्र किसी के द्वारा भेंट किये जाने पर ग्रहण कर लेते हैं। - इस पंचमकाल में वे स्थविरकल्प मुनि एकल विहारी न होकर समुदाय में विहार करते हैं और अपनी शक्ति के अनुसार जिनधर्म की प्रभावना करते हैं। भव्य जीवों को यथायोग्य अर्थात् श्रावकों को प्रतिमा रूप और परम विरक्त श्रावकों को मुनि दीक्षा देकर अपने-अपने पद के अनुसार चारित्र का पालन कराते हैं तथा निरन्तर सबको धर्म में दृढ़ रखते हैं। - आचार्य देवसेन स्वामी उन स्थविरकल्प मुनियों की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि इस पंचमकाल में हीन संहनन और मन अत्यन्त चंचल होने पर भी यह आश्चर्य है कि वे धीर-वीर पुरुष महाव्रतों का भार धारण करके उत्साहित होते हैं और चतुर्थकाल में 427 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org