________________ निष्कर्ष भारतवर्ष हमेशा से समस्त विश्व का आध्यात्मिक गुरु माना गया है। इसीकारण से भारत का प्राचीन नाम विश्वगुरु है। विश्व के प्राचीन लिखित ग्रंथ वेद और उपनिषद में पर्याप्त आध्यात्मिक विषय वर्णित है। आचार्य देवसेन स्वामी ने जिनागम के प्रत्येक विषय को छुआ है, अतः अध्यात्म से दूर कैसे रह सकते थे, इसलिये उन्होंने बहुधा अध्यात्मपरक चिन्तन को भी व्यक्त किया, इसीकारण से उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों में भगवान् महावीर को मंगलाचरण में नमस्कार किया है, परन्तु उन्होंने अपने आध्यात्मिक ग्रंथ तत्त्वसार में सिद्ध परमात्मा को ही नमस्कार किया है। आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि तत्त्व का सामान्य रूप से आशय यह है कि पदार्थ जिस रूप में होता है उसका उस रूप होना ही तत्त्व कहलाता है। सामान्य से पदार्थों के स्वभावगत तत्त्वों की गणना करना चाहें तो वे असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं। भेदगत दृष्टि से तो तत्त्व सात ही होते हैं। उनका कहना है कि जब तक तत्त्वज्ञान नह होगा, तब तक तत्त्वदृष्टि नहीं बन सकती। वह तत्त्वज्ञान सद्शास्त्रों के अध्ययन, मनन, चिन्तन से ही संभव हो सकता है, क्योंकि बिना तत्त्वज्ञान के आत्मकल्याण होना असंभव है। आचार्य देवसेन स्वामी ने तत्त्व के भिन्न प्रकार से दो भेद किये हैं। स्वगत तत्त्व तथा परगत तत्त्व। उनके अनुसार स्वगत तत्त्व निजात्मा और परगत तत्त्व सभी जीवों के आश्रयभूत पंच परमेष्ठी हैं। इन पंच परमेष्ठी के चितवन करने से किस प्रकार के फल की प्राप्ति होती है, तो आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि- उन पंच परमेष्ठियों के वाचक अक्षर रूप मंत्रों का ध्यान करने वाले भव्य जीव बहुत पुण्य का अर्जन करते हैं और उनको परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य देवसेन स्वामी ने इसमें आत्मा को विभिन्न उपमाओं से अलंकृत किया है। शुद्धात्म तत्त्व की प्राप्ति का उपाय, परम लक्ष्य शुद्धात्मा सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप भी अत्यन्त सुन्दरता से वर्णित किया है। अन्त में अन्य दर्शनों में आत्मतत्त्व का विवेचन को प्रस्तुत करके जैनदर्शन में वर्णित आत्मा का मण्डन किया है। 414 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org