________________ व्रती भी बने थे, वे त्यागी भी बने थे, वे मुनि भी बने थे और मौनी भी बने थे, परन्तु दष्टि एक ही थी कि मुझे परम लक्ष्य सिद्धावस्था प्राप्त हो। मुक्त जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है, यह सर्वविदित है। आचार्य कहते हैं कि जैसे समस्त कर्मों से मुक्त हो चुका है ऐसा जीव धर्मादि द्रव्यों के सदभाव होने पर भी वह नीचे अथवा तिरछा गमन नहीं करता है क्योंकि मुक्तजीव का स्वभाव कुम्हार के चक्र के समान, मिट्टी का लेप हटी हुई तूंबडी, एरण्ड के बीज के समान और अग्निशिखा के समान ऊर्ध्वगमन करना है।' उसी सिद्धावस्था की और विशेषतायें बताते हुए आचार्य कहते हैं कि - असरीरा जीव घणा चरमसरीरा हवंति किंचूणा। जम्मण-मरण-विमुक्का णमामि सव्वे पुणो सिद्धा॥ अर्थात् वे सिद्ध जीव शरीर से रहित अमूर्तिक होते हैं, अब ज्ञान ही उनका शरीर है, बहुत घने हैं अर्थात् एक ही प्रदेश में अनन्त सिद्धों को अवगाहन दिये हुए हैं, अपने अन्तिम शरीर से किञ्चित् ऊन अर्थात् कुछ कम हैं और जन्म एवं मरण से रहित हो चुके हैं, क्योंकि जन्म-मरण तो शरीर का होता है, अब शरीर से रहित होने के कारण जन्म-मरण का अभाव हो गया है। ऐसे समस्त अनन्त चतुष्टयादि से सहित सिद्ध भगवन्तों को मैं नमस्कार करता हूँ। उन सिद्ध भगवन्तों की तरह हमें भी स्वात्मोपलब्धि प्राप्त करने के लिये उन्हीं के बताये मोक्षमार्ग पर चलना चाहिये। तभी हम उस परमलक्ष्य सिद्ध परमेष्ठी तक पहुँच सकते हैं। त. सू. 10/7 तत्त्वसार गा. 72 408 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org