________________ की प्राप्ति करने के लिए करता है, न कि पुण्य प्राप्ति के लिये। आचार्य समन्तभद्र स्वामी इसी सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हैं कि - न पूजयार्थ वीतरागो न निन्दया नाथ! विवान्त वैरे। तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः॥' अर्थात् हे देवाधिदेव! हे अरहन्त देव! आपको पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है, आपको निन्दा से कोई प्रयोजन नहीं है, हे प्रभो! आप तो वीतरागी हो, मैं आपके चरणों में आपके लिये नहीं आया हूँ। मैं तो इसलिये आया हूँ कि आपके दर्शन से समस्त प्राणियों के पाप रूपी कलंक धुल जाते हैं, उनकी आत्मा पवित्र हो जाती है, उनका कल्याण हो जाता है। यह जीव प्रभु अरहन्त देव के पास उनकी आराधना करने, पूजन करने, अपना लोभ त्याग करने के लिये आता है, तभी उसे अपने स्वरूप की प्राप्ति होना संभव है। यह जीव भगवान् की प्रतिमा की आराधना इसलिये करता है कि उसमें वह अपनी प्रतिमा को, अपने स्वरूप को देख सके। दर्पण देखने के लिये दर्पण को नहीं देखा जाता अपितु दर्पण में देखने के लिये दर्पण को देखा जाता है। आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी इसी सन्दर्भ में कहते हैं कि - जो जाणदि अरहतं दव्वत्तगुणत्त। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्सलय।। अर्थात् जो अरहंत देव के द्रव्य, गुण और पर्याय को जान लेता है वह अपनी आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय को जान लेता है। अतः जिनदेव के दर्शन करना चाहिये, निजदेव के दर्शन के लिये और जिसकी निजदेव के दर्शन के लिये और जिसकी निजदेव के दर्शन की दृष्टि नहीं है, उसका जिनदेव का दर्शन है ही नहीं। वह तो मात्र कुल परम्परा का निर्वहण मात्र कर रहा है। जिस प्रकार देवताओं के भवनों में अरिहन्त जिन की अकृत्रिम प्रतिमायें विराजमान होती हैं, जो सम्यग्दृष्टि देव होते हैं वे उन्हें अपना माराध्य मानकर उनकी पूजा अर्चना करते हैं और मिथ्यादृष्टि देव उनको कुलदेवता स्वयंभूस्तोत्र श्लो. 57 प्रवचनसार गा. 80 405 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org