________________ प्रथम परिच्छेद : स्वगत तत्त्व और परगत तत्त्व भारतवर्ष हमेशा से समस्त विश्व का आध्यात्मिक गुरु माना गया है। इसी कारण से भारत का प्राचीन नाम विश्वगुरु है। विश्व के प्राचीन लिखित ग्रन्थ वेद और उपनिषद में पर्याप्त आध्यात्मिक विषय वर्णित हैं। उन्हीं का सारभूत तथ्य भगवद्गीता में दिया है। कहा भी गया है सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः। पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥ उसी प्रकार जैनाचार्यों ने भी आध्यात्मिक क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को अत्यन्त दृढ़ता प्रदान की है। जैन अध्यात्मशास्त्र अध्यात्मरूपी वृक्ष के मूल स्तम्भ हैं। जिसके प्रभाव से आज तक अध्यात्म की संतति निरन्तर प्रवहमान है। इस श्रृंखला में सर्वप्रथम नाम अध्यात्म गुरु आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का लिया जाता है। आचार्यवर द्वारा प्रतिपादित समयसार आदि ग्रन्थ पाठक को अध्यात्ममय कर देते हैं। पाठक स्वयं को इसके अध्ययनोपरान्त तल्लीन महसूस करता है। सामान्य रूप से देखा जाय तो अध्यात्मक अधि + आत्म इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ, जिसका अर्थ होता है आत्मा के समीप। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के पश्चात् इस कड़ी को अग्रसरित करने में आचार्य समन्तभद्रस्वामी, आचार्य पूज्यपादस्वामी, आचार्य योगिन्दुदेव, आचार्य अकलंक, आचार्य देवसेनस्वामी आदि प्रमुख हैं। उसी प्रवाह को अग्रिम आचार्यों ने आज तक संजोये रखा है। अध्यात्मक के बिना ध्यान आदि की कल्पना अधूरी है। उस ध्यान से ही जैनदर्शन ने मोक्ष की प्राप्ति स्वीकारी है, इसलिये अध्यात्म भी मुक्ति का एक साधन है। चूंकि आचार्य देवसेन स्वामी ने जिनागम के प्रत्येक विषय को स्पर्श किया है, इसलिये वे अध्यात्म से दूर कैसे रह सकते थे। उन्होंने बहुधा अध्यात्मपरक चिन्तन को भी व्यक्त किया है। इसी कारण से उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों में भगवान् महावीर को मंगलाचरण में नमस्कार किया है, परन्तु उन्होंने अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ 'तत्त्वसार' में सिद्ध परमात्मा को ही नमस्कार किया है। वह इस प्रकार है 392 Jain Education Interational For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org