________________ जैनदर्शन दो प्रमाण स्वीकार करता है प्रत्यक्ष और परोक्ष। इन दोनों में ही सभी प्रमाणों का अन्तर्भाव हो जाता है। एक विषय दोनों में समान है - प्रत्येक जीव की भिन्न सत्ता। आचार्य देवसेन स्वामी ने सांख्य को आचार की दृष्टि से बताते हुए लिखा है कि ये लोग सदैव विषयों में आसक्त रहते हैं, काम सेवन के लिये उन्मत्त रहते हैं, दयारहित, दुराचारी होते हैं। उनका विचार है कि कैसी भी स्त्री हो उसके प्रणय निवेदन को स्वीकार करके भोग करना चाहिये चाहे वह माता, बहिन अथवा पुत्री ही क्यों न हो। उसको व्यास के वचनों को प्रगट करके दिखाना चाहिये। जिस प्रकार वेदपाठी ब्राह्मण ने कामासक्त होकर ब्राह्मणी, भंगिन, नटिनी, धोबिन, चमारिन, कंजिरिन आदि सबके साथ रमण किया था।' और भी कहते हैं कि ऐसे कामासक्त गुरुओं की सेवा करने वाले निश्चित रूप से महादु:खों को भोगते हैं। ये गुरु पत्थर की नाव की तरह हैं जो स्वयं तो डूबेंगे ही, जो इसमें सवारी करेगा वह भी निश्चित ही डूबेगा। अतः निर्ग्रन्थ परम दिगम्बर मुनियों की सेवा करने से निश्चित ही स्वर्ग और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होगी। इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्तर्गत चार्वाक और सांख्य मतों का प्ररूपण करके सामान्य रूप से निराकरण आचार्य देवसेन स्वामी के द्वारा किया गया। भा. सं. गा. 180, 182 389 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org