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________________ पञ्चम परिच्छेद : सांख्यमत की समीक्षा सांख्य दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। सांख्य दर्शन अत्यन्त प्राचीन दर्शन है क्योंकि इसकी झलक श्रुति, स्मृति और पुराण आदि सभी प्राचीन कृतियों में दिखाई पड़ती है। सांख्य नाम की उत्पत्ति कैसे हुई.यह अज्ञात है। इसके प्ररूपण में सामान्य रूप से दो मत प्रस्तुत होते हैं। उनमें एक यह है कि इसमें तत्त्वों की संख्या निर्धारित की गई है।' भागवत् (3/35) में इसको 'तत्त्व संख्यान' अथवा तत्त्व-गणन कहा गया है। दूसरा यह है कि संख्या का अर्थ सम्यग्ज्ञान है और इसी कारण से यह सांख्य कहलाता है। गीता में भी यही अर्थ किया गया है। इसका मल ग्रन्थ महर्षि कपिल द्वारा रचित 'तत्त्व समाज' है। यह ग्रन्थ अत्यधिक संक्षिप्त और सारगर्भित है। अतः सांख्य दर्शन के सिद्धान्तों और मर्म को विस्तृत रूप से समझाने के लिये उन्होंने 'सांख्य सूत्र' नामक विशद ग्रन्थ की रचना की, इसलिये यह दर्शन सांख्य प्रवचन नाम से भी जाना जाता है। ये ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। योगदर्शन सांख्य के ही समान है, परन्तु ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने के कारण 'सेश्वर सांख्य' कहलाता है। सांख्यदर्शन मुख्य रूप से दो पदार्थ मानता है एक प्रकृति और दूसरा पुरुष। पुरुष जीव को कहते हैं और ये इसको क्रिया रहित स्वीकार करते हैं अर्थात् जीव को कर्ता एवं भोक्ता नहीं मानते हैं। प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि उत्पन्न होती है। इसमें प्रकृति को अन्ध और पुरुष को पंगु की उपमा दी गई है। सृष्टि के पहले तीनों गुण (सत्त्व, रज और तम) साम्य अवस्था में थे। फिर पुरुष और प्रकृति के संयोग से गुणों में क्षोभ उत्पन्न होता है, गुणों में क्षोभ होने पर रज गुण में प्रवृत्ति निमित्तक चञ्चलता उत्पन्न होती है। इससे प्रकृति से महत् तत्त्व की उत्पत्ति होती है। महत् का ही अपर नाम बुद्धि है। बुद्धि से अहंकार उत्पन्न होता है। सात्त्विक अहंकार से पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन ऐसे 11 गण उत्पन्न होते हैं। तामस और अहंकार प्रवचन भाष्य की भूमिका से उद्धृत पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य। - पङ्ग्वन्धवदुभयारेपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः।। सांख्यकारिका 21 387 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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