________________ देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में संग्रहीत होकर लिखे गये हैं और जितने दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रन्थ उपलब्ध हैं और जो निश्चयपूर्वक साम्प्रदायिक कहे जा सकते हैं, वे प्रायः इस समय से बहुत पहले के नहीं है। अतएव यदि यह मान लिया जाय कि विक्रम संवत् 410 के सौ पचास वर्ष पहले ही ये दोनों भेद सुनिश्चित और सुनियमित हए होंगे तो हमारी समझ में असंगत न होगा। आचाप आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - श्वेताम्बर मत में स्त्रियों को उसी भव में मोक्षप्राप्ति हो सकती है और केवली कवलाहार करते हैं तथा रोगग्रस्त भी होते हैं। वस्त्र धारण करने वाला मुनि भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है, महावीर भगवान् के गर्भ का संचार हुआ था अर्थात् वे पहले ब्राह्मणी के गर्भ में आये, बाद में क्षत्रियाणी के गर्भ में चले गये, जैन मुद्रा के अतिरिक्त अन्य वेषों से भी मुक्ति संभव है और प्रासुक भोजन सर्वत्र किसी के भी घर में कर लेना चाहिये। ऐसा श्वेताम्बर मानते हैं। इस प्रकार की मान्यता वास्तविक धर्म के विरुद्ध है। अत: आचार्य कहते हैं कि यदि परिग्रह सहित अवस्था में मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तो तीर्थङ्कर आदि को अपना राज्य ऐश्वर्य आदि त्यागकर निर्जन वन में जाने की क्या आवश्यकता थी, और जब परिग्रह सहित ही मोक्ष संभव है तो रत्न-निधियाँ आदि छोड़कर अन्य परिग्रह ग्रहण क्यों करते हैं, वही क्यों नहीं रखते हैं? वे ही तीर्थङ्कर मुनि अवस्था को धारण करके हाथ में पात्र लेकर घर-घर भोजन माँगने के लिये क्यों जाते हैं? क्या प्रत्येक घरों में पंचाश्चर्य उत्पन्न होते हैं, इसलिये त्यागकर फिर ग्रहण करना सर्वथा मिथ्यावाद है। जिसका हृदय संशय मिथ्यात्व के रस से रसिक हो रहा है, उसका यह सब उपर्युक्त कथन सर्वथा गलत है, क्योंकि मोक्ष का मार्ग निर्ग्रन्थ अवस्था ही है। जिसमें वस्त्र दण्ड आदि समस्त बाह्य परिग्रहों का भी त्याग हो जाता है। सग्रन्थ अवस्था मोक्षमार्ग कभी नहीं हो सकती।' . अब आगे स्त्री मुक्ति उसी पर्याय से संभव नहीं है, ये बतलाते हैं। आचार्य कहते हैं कि स्त्रीलिंग कुत्सित लिंग है अर्थात् स्त्री का शरीर अथवा पर्याय निन्द्य है। स्त्री द. सा. गा. 13-14, भा. सं. गा. 87 भा. सं. गा. 88-89 वही गा. 91 376 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org