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________________ बालक है जो छोटा था अब बड़ा हो गया है' अतः कोई भी पदार्थ सर्वथा नित्य अथवा अनित्य नहीं हो सकता है।' इस प्रकार एकान्त मिथ्यात्व को मानता हुआ यह जीव वास्तविक स्वभाव को नहीं जान पाता है। वह अपने अज्ञान से पापबन्ध करके दुर्गति को प्राप्त करता है। अब आगे वैनयिक मिथ्यात्व की उत्पत्ति एवं दोष को बताते हैं - कोई दुष्ट हो अथवा गुणवान्, जो दोनों में समानरूप से भक्ति करता है और समस्त देवताओं को साष्टांग नमस्कार करता है, वह वैनयिक मिथ्यात्वी कहा जाता है। सभी तीर्थङ्करों के तीर्थों में वैनयिक मिथ्यादृष्टियों का उद्भव होता है जिनमें कोई जटाधारी, कोई मुण्डे, कोई शिखाधारी, कोई नग्न, ऐसे तापसी लोग अज्ञानी, अविवेकी और सद्गुणों से रहित होते हैं। इनकी मान्यता होती है कि सभी की विनय करने से मोक्ष की प्राप्ति आगामी काल में हो ही जायेगी। यदि ऐसा ही है तो उनको गधा, चाण्डाल आदि सबकी विनय करना चाहिये। परन्तु वे लोग ऐसा कभी भी नहीं करते हैं। जो लोग धर्म समझकर इन रागी द्वेषी देवों को नमस्कार भी मिथ्यात्व के कारण ही करते हैं। जो लोग पुत्रोत्पत्ति अथवा आयु बढ़ाने के लिये चण्डी, मुण्डी आदि देवी-देवताओं की विनय करते हैं तो उनके लिये कहा जाता है कि वे देव जब स्वयं अपनी आयु तो बढ़ा नहीं पाते अथवा महापुरुषों (नारायणादि) की रक्षा तो कर नहीं पाते फिर वह अन्य दूसरों की आयु कैसे बढ़ा सकते हैं। कहा भी है ___ 'जो बेचारे खुद दु:खी वे क्या हरें पर की पीर रे' जीना मरना तो आयु कर्म के अधीन है। इसमें कोई भी कुछ नहीं कर सकता। पुत्रोत्पत्ति भी रतिकर्म में प्रवृत्त हुए स्त्री-पुरुषों के अपने आप होती है। जैसा कि कहा गया है कि महादेव जी तारकासुर के भय से पुत्र उत्पन्न करने के लिये पार्वती के साथ देवताओं के हजार वर्ष तक किसी वन में समागम करते रहे थे। इससे स्पष्ट है कि पुत्रोत्पत्ति में किसी भी देवी-देवता की विनय करना व्यर्थ है और जब तक आयुकर्म शेष है तो कोई भी हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता है। यदि पूजा या वन्दना करने से देवता मनुष्यों की रक्षा करता तो रावण भा. स. गा. 71 द. सा. गा. 18-19, भा. सं. गा. 73 374 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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