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________________ द्वितीय परिच्छेद : पाँच मिथ्यात्वी मतों का खण्डन इन मिथ्यात्वी मतों को मुख्य रूप से पाँच भेदों में विभाजित किया गया है-विपरीत मिथ्यात्व, एकान्त मिथ्यात्व, विनय मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व और अज्ञान मिथ्यात्वा' मिथ्यात्व और उसके भेदों के स्वरूप का वर्णन तृतीय अध्याय में विस्तृत रूप से कर चुके हैं, इसलिये यहाँ करना पुनरुक्ति दोष होगा। यहाँ सिर्फ इन मिथ्यात्वों के उत्पत्ति, दोष, कारण तथा उनके उपायों का वर्णन किया जायेगा। अब विपरीत मत की उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - बीसवें तीर्थकर भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के समय में एक उपाध्याय (पाठक) जिनका नाम क्षीरकदम्ब था, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि था और उसके प्रमुख तीन शिष्य थे - नारद, राजकुमार वसु जो दुष्ट स्वभावी था और उनका पुत्र पर्वत वक्र बुद्धि था। पर्वत और वस ने मिलकर नारद को झूठा साबित करके संयम का घात किया और हिंसा को पुष्ट करने वाली यज्ञ में बकरे की बलि को मान्यता प्रदान कर दी। इस कारण से वे और पर्वत की माता भी महाघोर सातवें नरक में जा पड़े। उन्होंने यज्ञ में अज का अर्थ धान न करके बकरा करके असत्य रूप बलि को प्रतिपादित किया और इस प्रकार विपरीत मिथ्यावी होकर नरक में गये। तीर्थ जल स्नान से आत्मा की शुद्धि, मांस भक्षण से पितर की तृप्ति, पशुवध से स्वर्ग की प्राप्ति और गाय की योनि के स्पर्श से धर्म प्राप्ति आदि में धर्म की विपरीतता किस प्रकार सिद्ध होती है उसको प्ररूपित करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं - यदि जल स्नान करने मात्र से ही यह जीव पापों से छूट जाता है तो जल में निवास करने वाले समस्त जलचर जीवों को तो नियम से स्वर्ग की प्राप्ति हो जायेगी। परन्तु यह असंभव है, इसलिये तीर्थों के जल से स्नान करने पर पापों की शुद्धि मानना विपरीत श्रद्धान है। फर्रुखाबाद में देखते हैं कि कितने ही लोग गंगा में स्नान करके भा. सं. गा. 16, द. सा. गा. 5 द. सा. गा. 16-17 366 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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