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________________ प्रथम परिच्छेद : विभिन्न मतों की उत्पत्ति, कारण और समय विभिन्न धर्म, दर्शन और सम्प्रदायों का समूह है भारत। इसमें प्रत्येक दर्शन को अपने विचार व्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, इसीलिये भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। प्रत्येक दर्शन के सिद्धान्त भी पृथक्-पृथक् हैं। उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन वे भली-भाँति तर्कपूर्ण तरीके से करते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि किसी एक दर्शन के सिद्धान्तों को कोई अन्य दर्शन भी स्वीकार करे; इसलिये वे भी इनके द्वारा प्रदत्त तर्कों को अपने तर्कों से. खण्डित कर देते हैं। इन विभिन्न दर्शनों के सिद्धान्त एक-दूसरे से खण्डित इसलिये हो जाते हैं, क्योंकि ये एक पक्ष का ही दृढ़ता से पालन एवं कथन करते हैं। इनके कथन में एकान्त पुष्ट होता है, इसलिये इनका कथन अन्य अपेक्षा से खण्डन को प्राप्त हो जाता है। एक अपेक्षा से तो उनका 'ऐसा ही है' होता है। अतः ये सदोष हो जाते हैं। ऐसे एक पक्षीय समर्थक कई दर्शन आज भी विद्यमान हैं और इन सब दार्शनिकों अथवा मत प्रवर्तकों का मुखिया आदि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव का महामोही और मिथ्यात्वी पौत्र मारीचि पूर्वाचार्यों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। उस मरीचि ने एक विचित्र दर्शन अथवा मत का प्रवर्तन कुछ इस प्रकार से किया कि वही आगामी समय में कुछ सिद्धान्तों के परिवर्तन से आगे चलकर अनेक मतों के रूप में प्रकट हो गये। ये सारे मत एकान्तवाद को ही पुष्ट करने वाले थे। इनका समर्थन करने वालों की संख्या में समय के अनुसार हानि-वृद्धि होती रही। जो एक ही पक्ष की अपेक्षा कथन करने वाले होने से मिथ्यात्व को संपोषित करते हैं। आचार्य जिनसेन स्वामी के अनुसार भगवान् आदिनाथ का पौत्र मरीचि भी अन्यान्य लोगों के साथ परिव्राजक हो गया। उसने असत् (जिनकी कोई सत्ता नहीं है) सिद्धान्तों के उपदेश से मिथ्यात्व की वृद्धि की। योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र को उसी ने रचा, जिनसे मुग्ध होकर यह सम्पूर्ण लोक सम्यग्ज्ञान से विमुख हो गया। पं. नाथूराम जी प्रेमी का ऐसा विचार है कि - आदिपुराप्प के कुछ श्लोकों से मालूम होता है कि सांख्य और योग का प्रणेता मरीचि है, परन्तु दर्शनसार गा. 3 वही गा. 4 आदिपुराण 18/61-62 364 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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