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________________ चिन्तन और धारणा का विकल्प नहीं है वह शुन्य ध्यान है। शून्यता और शुद्धभाव में कोई अन्तर नहीं है। यहां शून्य ध्यान से तात्पर्य निर्विकल्पक समाधि है। ध्यानों को गुणस्थानों के अनुरूप ही वर्णित किया है। आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान तिर्यच एवं नरक गति का कारण होने से हेय हैं। भद्र ध्यान और धर्म्य ध्यान स्वर्गादि की प्राप्ति एवं परम्परा से मोक्ष का कारण होने से तात्कालिक उपादेय हैं और शुक्ल ध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण होने से परम उपादेय है, क्योंकि शुक्ल ध्यान, ध्यान की सर्वोच्च कोटि है। ध्येय रूप पंच परमेष्ठियों का वर्णन करते हुए टीकाकार ने आचार्य परमेष्ठी के भिन्न 36 मूलगुणों का वर्णन किया है। दान के सन्दर्भ में आचार्य ने चार अधिकारों का वर्णन बड़ी सुन्दरता से किया है - दाता, पात्र, देने योग्य द्रव्य और देने की विधि। आचार्य ने पात्र के दो विशेष भेद किये हैं - वेदमय पात्र और तपोमय पात्र। यहाँ वेद से तात्पर्य सिद्धान्त-शास्त्र है। इसके पश्चात् पात्रदान का फल और महत्त्व, कुपात्रों को दान का फल, नहीं देने योग्य द्रव्य और आहार दान में ही चारों दानों को गर्भित करते हुए अच्छी प्रकार से आहार दान के महत्त्व का वर्णन किया है। अपने द्रव्य को किस प्रकार सदुपयोग में लगाना चाहिये, इसका भी उपदेश दिया। पुण्यासव के मुख्य कारणों में जिनपूजा का विशेष वर्णन करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी ने पूजा की विधि, पूजा के यन्त्र की विधि, पूजा के फल का विशद रूप से प्ररूपण किया है। इसप्रकार से पूजा की विधि अन्य किसी आचार्य ने वर्णित नहीं की संक्षेप से श्रावकों के अष्ट मूलगुण और अणुव्रत सहित बारह व्रतों का भी वर्णन किया है। शिक्षाव्रत के भेदों में सल्लेखना को भी ग्रहण किया है। . 362 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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