________________ का त्याग करने में समर्थ है, तो आचार्य कहते हैं कि - जिस पुरुष ने अपने समस्त प्रमाद नष्ट कर दिये हैं और इन्द्रियों के विषय तथा कषायों में लगे हुए अपने चित्त को जिसने सर्वथा अपने वश में कर लिया है, गृहस्थी के समस्त व्यापारों का त्याग कर दिया है और निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके महाव्रतों को अतिचार रहित पालन करते हुए 6-7वें गुणस्थान में रहते हुए उपशम या क्षपक श्रेणी के सम्मुख होते हैं और वह जब शुद्ध अवस्था की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है तब यह पुण्य भी उसको हेय है। क्षपक श्रेणी में कर्मों का क्षय, उपशम श्रेणी में कर्मों का जब उपशम होता है तो पुण्य तो स्वतः ही छूट जाता है उसे छोड़ने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। परन्तु जो गृहस्थ अपने परिग्रह व्यापारादि में रत है उसको यह पुण्य के कारण कभी भी नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि पुण्य साक्षात् रूप से तो स्वर्ग में देवपर्याय को प्राप्त कराता है और परम्परा से मोक्ष का कारण होता है। आचार्यों ने श्रावक के 6 आवश्यकों में सर्वप्रथम देवपूजा को ही स्थान दिया है। वे लिखते हैं कि देवपूजा गुरुपास्ति स्वाध्यायसंयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने। . इस मनुष्य जन्म की प्राप्ति हमें किसी महान् पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त हुई है, इसमें भी आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, निरोगी काया, सत्पुरुषों की संगति आदि उत्तम से उत्तम निमित्त मिलने पर भी जो दान-पूजादि षट् आवश्यक कार्यों को नहीं करता है, उसे आचार्यों ने पशु के समान स्वीकार किया है। इसलिये प्रत्येक श्रावक को यदि पाप से बचना है तो उसको पूजा आदि कार्यों को परमावश्यक समझकर करना ही चाहिये, जिससे इहभव में और परभव में सुख-शान्ति की प्राप्ति हो सके। दान के विषय में विस्तृत चर्चा पिछले परिच्छेद में हो चुकी है। अब पूजा के विषय में चर्चा करते हैं। आचार्य कहते हैं कि पुण्य के कारणों में सर्वप्रथम भगवान् जिनेन्द्र देव की पूजा करना है, अतः समस्त श्रावकों को परम भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। पूजा को और किन-किन नामों से जाना जाता है, उसको वर्णित करते हुए आचार्य जिनसेन स्वामी प. पं. श्लोक 6/7 347 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International