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________________ इस प्रकार नवधा भक्ति पूर्वक साधु को आहार दान देने से महान् पुण्य प्राप्त होता है। इसी प्रकार चतुर्विध संघ में अन्य सभी को भी यथायोग्य विधि से आहार देना चाहिये। आहार दान में गर्भित चारों दान आहार दान एक ऐसा दान है जिसमें चारों प्रकार के दानों का समावेश होता है। इसलिये आहारदान की महत्ता को प्ररूपित करते हुए सभी आचार्यों ने समानरूप से / इसको देने की प्रेरणा भी दी है और इसको महान् पुण्य के बन्ध का कारण भी माना है। ऐसे महान आहारदान की महिमा का मण्डन करते हुए आचार्य कार्तिकेय स्वामी लिखते हैं कि - आहार दान देने पर तीनों ही दानों का समावेश होता है, क्योंकि प्राणियों को भूख और प्यास रूपी व्याधि प्रतिदिन होती है और भोजन के बल से ही साधु रात-दिन शास्त्र का अभ्यास करते हैं और भोजन से प्राणों की रक्षा भी होती है। इसी प्रकार आचार्य देवसेन स्वामी भी आहारदान की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि - जो पुरुष विशेष रीति से एक आहार दान को ही देता है वह उस एक आहार दान से ही समस्त दानों को दे देता है। यह इस प्रकार सिद्ध होता है - भूख की पीड़ा अधिक होने से मरने का भय होता है, इसलिये आहार दान देने से अभयदान की प्राप्ति होती है तथा भूख ही सबसे प्रबल व्याधि है और दान देने से ही औषध दान हो जाता है। इसी आहार के बल से ही समस्त शास्त्रों का पठन-पाठन होता है। अतः इससे शास्त्रदान का भी फल मिलता है। इस प्रकार एक आहार दान से चारों दानों के फल मिल जाते हैं।' आचार्य का यहाँ यह आशय है कि - शरीर, प्राण, रूप, विद्या, धर्म, तप, सुख और मोक्ष ये सब आहार पर निर्भर हैं। अतः जो भव्य पुरुष यतियों को आहार दान देता है वह नियम से शरीर, प्राण आदि सबका दान देता है। इसी प्रकार इस संसार में भूख के समान कोई अन्य व्याधि नहीं है और अन्न के समान कोई औषधि नहीं है, इसलिये जो भव्य आहार दान देता है वह पुरुष आरोग्य दान भी देता है। यह शरीर अन्न का कीडा है और अगर इसको अन्न न मिले तो यह शिथिल होने लगता है। अतः जिसने का. अ. गा. 363-364 भा. सं. गा. 522-524 340 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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