________________ भाजनांग कल्पवृक्ष सुवर्ण-रजत आदि से निर्मित कटोरी, झारी, कलश, गागर, चामर, आसन, पलंग आदि देते हैं। दीपांग जाति के कल्पवृक्ष घर के अन्दर प्रकाश करने के लिये शाखा, प्रवाल, फल-फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश देते हैं। वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम रेशमी (विशुद्ध), चीनी और कोशे आदि के वस्त्र प्रदान करते हैं। भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, इतने ही प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार की दाल, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ तिरेसठ प्रकार के स्वाद्य एवं तिरेसठ प्रकार के रसों को प्रदान किया करते हैं। मालांग जाति के कल्पवृक्ष बेल, पत्र, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए बहुत सुगन्धी प्रदान करने वाली, अत्यन्त कोमल और रमणीय सोलह हजार भेद रूप पुष्पों से रची हुई प्रवर, बहुल, परिमल, सुगन्ध से दिशाओं के मुख को सुगन्धित करने वाली मालाओं को प्रदान करते हैं। इस प्रकार ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष भोगभूमियों में रहने वाले आर्यों को मनोवांछित फल प्रदान करते रहते हैं। दान देने योग्य द्रव्य ... दान देने के लिये जिसकी सबसे बड़ी भूमिका होती है वह है देने योग्य द्रव्य, क्योंकि बिना द्रव्य के दान की महत्ता निश्चित रूप से कम हो जाती है। इसीलिये विशुद्ध और प्रासुक द्रव्य सुपात्र को देने से ही दान का उत्तम फल प्राप्त हो सकता है। दानयोग्य विशुद्ध द्रव्य कैसा होना चाहिये, इस विषय में आचार्यप्रवर कुन्दकुन्दस्वामी लिखते हैं कि - मुनिराज की प्रकृति, शीत, उष्ण, वायु, श्लेष्म या पित्त रूप में से कौन सी है? कायोत्सर्ग अथवा गमनागमन से कितना परिश्रम हुआ है? शरीर में ज्वरादि पीड़ा तो नहीं है, उपवास से कण्ठ शुष्क तो नहीं है इत्यादि बातों का विचार करके उनके उपचार स्वरूप हित-मित-प्रासुक-शुद्ध * अन्न-पान, निर्दोष हितकारी औषधि, निराकुल स्थान, शयनोपकरण, आसनोपकरण, शास्त्रोपकरण आदि दान देने योग्य वस्तुयें हैं। दानयोग्य द्रव्य के विषय में आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि - जिससे तप और स्वाध्याय वसु. श्रा. गा. 254-257 र. सा. गा. 23-24 2. 337 Jain Education Interational For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org