________________ यह ध्यान लगभग सभी आचार्यों ने श्रेणी आरोहण में 8वें से 12वें गुणस्थान में स्वीकार किया है, किन्तु आचार्य वीरसेनस्वामी का मत है कि जब तक मोहनीय कर्म का नाश नहीं हो जाता तब तक शुक्ल ध्यान संभव नहीं है। अतः प्रथम शुक्ल ध्यान 11वें. 12वें गुणस्थान में होता है। शेष आचार्य आठवें गुणस्थान से 12वें उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी में प्रथम शुक्ल ध्यान होता है ऐसा मानते हैं। यह ध्यान तीनों योगों (मन, वचन काय) से होता है। इस शुक्ल ध्यान को प्राप्त करने में साधक मुनि को अष्ट प्रवचन मातृका (5 समिति और तीन गुक्ति) का ज्ञान होना ही आवश्यक है। इस ध्यान से मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम होता है। 2. एकत्ववितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान - यह ध्यान वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान सहित होता है, किसी एक ही योग से होता है और उसमें वीचार अथवा संक्रमण नहीं होता. वीचार रहित होता है। जिस प्रकार उन मुनि का ध्यान वीचार रहित निश्चल होता है इसमें कोई भी सन्देह नहीं है।' यहाँ आशय यह है कि वे मुनि अपने एक आत्मद्रव्य का चिन्तन करते हैं अथवा उसकी किसी एक पर्याय का चिन्तन करते हैं अथवा उसके किसी एक गुण का चिन्तन करते हैं। उनका वह ध्यान अटल रहता है, इसको एकत्व वितर्क कहते हैं। इस ध्यान में द्रव्य-गुण-पर्यायों का परिवर्तन नहीं होता, यदि द्रव्य का ध्यान करता है तो द्रव्य का ही चिन्तन करता रहेगा। यदि गुण का ध्यान करता है तो उस एक गुण का ही ध्यान करता रहेगा, यदि पर्याय का ध्यान करता है तो पर्याय का ही ध्यान करता रहेगा, उसको परिवर्तित नहीं करता है। ऐसे निश्चल ध्यान को जो ध्यान में अत्यन्त निपुण गणधरदेव अवीचार ध्यान कहते हैं। इसमें वे मुनि आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं और भावथत ज्ञान का आलम्बन होता है। इस प्रकार जो शुद्ध आत्मा का चिन्तन करना है उसको सवितर्क ध्यान कहते हैं। जिस समय वे ध्यानी मुनि इस ध्यान को ध्याते हैं उस समय वे बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में अपने प्रज्वलित ध्यान के द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म इन तीनों घातिया कर्मों का नाश कर डालते हैं। इनको नाश करके वे मुनिराज स्वात्म तत्त्व की प्राप्ति कर लेते हैं और अत्यन्त उत्कृष्ट शुद्धता को प्राप्त करके चारित्रसार गा. 663 288 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org