________________ आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी प्रतिपादित करते हैं कि भरत क्षेत्र में जो दुःखमा नामक पंचमकाल है उसमें ज्ञानी (मुनि) के धर्म्यध्यान होता है। उसको जो आत्मा के स्वभाव में स्थित नहीं मानता है, वह अज्ञानी है।' धर्म्यध्यान की भी स्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसका भाव क्षायोपशमिक होता है और लेश्या सर्वदा शुक्ल होती है। इस धर्म्यध्यान के अभ्यास से संसार के भोगों से विरक्ति और विवेक की उत्पत्ति होती है। इसके अभ्यास से स्वर्गादि में, ग्रैवेयकों में, अनुदिश और अनुत्तरों में उत्पन्न हो सकता है। इसके प्रभाव से उत्तम मनुष्य के सुखों को भोगकर भेदविज्ञान के आलम्बन से संसार के परिभ्रमण से विरक्त होकर सम्यग्दर्शनादि रूप रत्नत्रय को धारण करके जो सभी को सुलभ नहीं है ऐसा दुःसाध्य तप को तपकर . यथाशक्ति धर्म्यध्यान से शुक्लध्यान को धारण करके अविनाशी मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि धर्म्य ध्यान साक्षात् नहीं परम्परा से मोक्ष का कारण होता है। 4. शुक्ल ध्यान - शुक्ल ध्यान का लक्षण करते हुए आचार्य पूज्यपादस्वामी कहते हैं कि - शुचि गुण से युक्त जो है वही शुक्लध्यान है। जिस प्रकार मलिनता के निकल जाने पर वस्त्र शक्ल (सफेद) स्वच्छ कहा जाता है, उसी प्रकार सर्वमलरहित निर्मल गुणों से युक्त आत्मपरिणामों की परिणति भी शुक्ल होती है। इसी आत्मपरिणति को शुक्ल ध्यान कहा जाता है।' धर्म्यध्यान की प्रक्रिया के अनन्तर ही शुक्ल ध्यान प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रक्रिया में बाह्य ध्येय प्रयोजनभूत नहीं होते। साधक मुनि के द्वारा आत्म तत्त्व के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखा जाता है। ध्यान की चरम अवस्था शुक्ल ध्यान है। इसमें ही पूर्णरूप से ध्यान की सिद्धि होती है। इस अवस्था को ही प्राप्त करके ध्यानी साधु को लक्ष्य की सिद्धि होती है। आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार यह निष्क्रिय इन्द्रियातीत ध्यान धारणा से विहीन अन्तर्मुखी मनोवृत्ति है, उसको शुक्ल ध्यान कहते हैं। शुक्ल ध्यान के भेद - सभी आचार्यों ने शुक्लध्यान के चार भेद स्वीकार किये हैं मोक्षपाहुड स. सि. 9/28, रा. वा. 9/28/627/31 286 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org