________________ 28. स्वाध्याय धारकत्व गुण - वाचना, पच्छना: अनप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के द्वारा जिनागम का स्वाध्याय करना। 29. व्युत्सर्गत्व गुण - वाह्याभ्यंतर परिग्रहों का त्याग करना, गुप्तियों का पालन करना। 30. ध्यान निष्ठतव गुण - आर्त रौद्र दोनों ध्यानों का त्याग कर धर्म्यध्यान वा शुक्लध्यान को धारण करना। 31. सामायिकत्व गुण - रागद्वेष को दूर करने के लिये छह प्रकारा का सामायिक करना। स्तव निरतत्त्व गुण - प्रति दिन चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना। 33. वंदना निरतत्त्व गुण - किसी एक तीर्थकर की स्तुति करना। 34. प्रतिक्रमण निरतत्त्व गुण - ईयापथ शुद्धि के लिये प्रतिक्रमण करना। दैवसिक प्रतिक्रमण करना पाक्षिक मासिक चातुर्मासिक वार्षिक प्रतिक्रमण करना। 35. प्रत्याख्यान निरतत्त्व गुण - पूर्वोपार्जित कर्मों का नाश करने को, उदय में आये .. हुए कर्मों का नाश करने के लिये समस्त विकारों का त्याग करना। 36. कायोत्सर्ग संगत्व गुण - निद्रा वंद्रा आदि दूर करने के लिये खग्डासन से योग धारण कर शरीर से ममत्व का त्याग करना। उपाध्याय परमेष्ठी - उपाध्याय परमेष्ठी के स्वरूप को बताते हुए आचार्य कहते हैं कि अज्झावयगुणजुमो धम्मोवदेसयारी चरियट्ठो। णिस्सेसागम कुसलो परमेट्ठी पाठओ झाओ।' अर्थात् जो मुनि अध्यापन कार्य में शिष्यों को पढ़ाने में अत्यन्त निपुण हैं, जो सदैव धर्मोपदेश में लीन रहते हैं, अपने चरित्र में स्थिर रहते हैं, समस्त आगम में कुशल होते हैं अथवा द्वादशांग के पाठी होते हैं उनको उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। भा. सं. गा. 378 283 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org