________________ 7. अपरिस्राविता गुण - जिस प्रकार पीया हुआ रस बाहर नहीं निकलता उसी प्रकार क्षपक मुनि ने अपनी आलोचना में जो दोष कहे हैं उनको भी प्रकट नहीं करना। निर्वापक गुण - जो समाधिमरण धारण करने क्षपक साधु, क्षुधा, तृषा आदि परीषहों से दुखी हो रहे हों उनके रस दु:ख को अनेक प्रकार की कथा सुनाकर दूर करना और इनको समाधि मरण में दृढ़ करना। 1. नग्नत्व गुण - सूती ऊनी रेशमी वृक्ष के पत्ते छाल आदि सब प्रकारा के वस्त्रों का त्याग कर नग्न वा दिगम्ब अवस्था धारण करना। 10. उद्देशिकाहारत्याग गुण - जो उद्देशयुक्त आहार के त्यागी हों एवं अन्य श्रमणों के लिये किये हुए आहार के भी त्यागी हों। 11. शय्याधरासन विवर्जित गुण - जो शय्या पृथ्वी आसन सबके त्यागी हों उनका संस्कार आदि भी न करते हों। 12. राज पिंड ग्रहण विवर्जित गुण - जो राजा मंत्री सेनापति कोतवाल आदि का आहार न ग्रहण करते हों। 13. कृति कर्म निरत गुण - जो छहों आवश्यकों को स्वयं पालन करते हो तथा अन्य मुनियों से कराते हों। 14. व्रतारोपण योग्य गुण - उद्देश्ययुक्त आहार का त्याग करने वाले दिगम्बर अवस्था धारण करने वाले और पंच परमेष्ठी की भक्ति करने वाले आचार्य स्वयं व्रत पालन करने और अन्य मुनियों को दीक्षा देकर महाव्रतों को धारण कराने की योग्यता रखना। 15. सर्व ज्येष्ठत्व गुण - जो आर्यिका क्षुल्लक साधु उपाध्याय आदि सब से अधिक श्रेष्ठता धारण करते हों। 16. प्रतिक्रमण पंडित्व गुण - जो आचार्य मन वचन काय से किसी भी प्रकार का अपराध हो जाने पर उसकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करने की दक्षता धारण करने वाले हों। 281 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org